
म्हण
0
Answer link
दुधाने तोंड पोळल्याने ताक फुंकून पिणे - एखाद्या गोष्टीमुळे आधी नुकसान झाले असेल तर पुढच्या वेळी सावधगिरी बाळगणे.
1
Answer link
कुटुंबातील माणसावर संकट आले म्हणजे त्याच्या आश्रयास असलेली जुनी माणसे मुळीच पडतात तर कधी उलटतातही. सत्ताधिकार्या सत्तां जयाच्या म्हणजे हाणेखालचे लोकही फितुर मार्ग.
दिवस बदलले (म्हणजे वाईट परिस्थिती आली) की जवळची म्हणवणारी लोकही बदलतात" >> हो असाच आहे अर्थ.घर फिरले की घराचे वासेही फिरतात <<< मी याचा अर्थ "उच्च पातळीवर एखादी घटना घडली की आपोआप तिचे पडसाद तिच्या अंतर्गत पातळ्यांवर उमटतात," असा घेत होतो.
उदा. तुमच्या प्रतिस्पर्धी संघातला एक खेळाडू तुमचा चांगला दोस्त आहे, पण दोन्ही संघांत अशी एखादी घटना घडली की त्या संघाचा कप्तान किंवा तो संपूर्ण संघ तुमच्या संघाचा द्वेष करू लागला. आणि तुमच्या लक्षात येते की तुम्ही ज्याला चांगला दोस्त समजत होतात तोही तुमच्याशी पूर्वीसारखा वागत नाहीय.
0
Answer link
अर्थ: एकदा एखाद्या गोष्टीचा अनुभव वाईट आला की माणूस तोच अनुभव पुन्हा येऊ नये म्हणून अधिक सावधगिरी बाळगतो.
विश्लेषण:
- दूध आणि ताक: दूध हे गरम असते आणि ते तोंडाला चटका देऊ शकते, तर ताक हे थंड असते.
- अनुभव: ज्या व्यक्तीचे तोंड दुधाने पोळले आहे, ती ताक पिताना सुद्धा फुंकून पिते, कारण तिला पूर्वीच्या वाईट अनुभवामुळे भीती वाटते.
- शिकवण: या म्हणीतून हे शिकायला मिळते की भूतकाळातील वाईट अनुभवांमुळे आपण भविष्यकाळात अधिक दक्षता घ्यावी.
उदाहरण: एका व्यवसायात नुकसान झालेला माणूस दुसरा व्यवसाय सुरु करताना खूप विचारपूर्वक पाऊल टाकतो, कारण त्याचे 'दुधाने तोंड पोळल्याने तो ताक फुंकून पितो'.
5
Answer link
ही एक म्हण आहे.
म्हण: ज्या गावच्या बोरी त्याच गावच्या बाभळी
अर्थ: एकाच गावातील लोक एकमेकांना चांगले ओळखतात.
0
Answer link
'माय मरो पण मावशी जगो' ही एक मराठी म्हण आहे.
अर्थ:
- एखाद्या गोष्टीमुळे एका व्यक्तीचे नुकसान होणार असले तरी, दुसरी व्यक्ती मात्र त्यातून फायदा मिळवण्याचा प्रयत्न करते, हे दर्शवण्यासाठी ही म्हण वापरली जाते.
- एखाद्या व्यक्तीला स्वतःच्या फायद्यासाठी दुसऱ्याचे नुकसान करण्याची पर्वा नसते, हे यातून दिसून येते.
उदाहरण:
एका कंपनीने कमी किमतीत वस्तू विकून स्वतःचा फायदा केला, पण त्यामुळे लहान दुकानदारांचे मोठे नुकसान झाले. या परिस्थितीत 'माय मरो पण मावशी जगो' असे म्हणता येईल.
3
Answer link
याचा अर्थ आहे कोणत्याही मोफत सेवेचा किंवा वस्तूचा अति प्रमानात उपभोग घेणे...काही वेळा तर गरज नसतानही...
फुकट मिळतंय म्हणून घ्या उपोयग करून असा या वाक्याचा अर्थ होतो...
फुकट मिळतंय म्हणून घ्या उपोयग करून असा या वाक्याचा अर्थ होतो...
1
Answer link
नेकी कर दरिया में डाल '
यह कहावत पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। सभी धर्मों में नेकी (पुण्य) को एक अहम मुकाम हासिल है और दुनिया के सभी धर्मों में दान-पुण्य को प्राथमिकता दी गई है। किसी गरीब की तन , मन , धन से मदद करना ही दान (खैरात) है। खैरात करना या दान करना किसी मनुष्य को औरों से अलग करता है और उसे श्रेष्ठता प्रदान करता है। इस्लाम में भी जकात , खैरात , सदका , फितरा इत्यादि को बड़ा पुण्य माना गया है , साथ ही जकात (एक विशेष प्रकार का दान) को मुसलमानों पर फर्ज (कर्त्तव्य) करार दिया है। जकात का अर्थ है कि जिसके पास एक नियत राशि में धन-संपत्ति हो , वह हिसाब लगाकर ईमानदारी से उसका चालीसवां भाग निर्धनों पर या नेकी की अन्य बातों पर व्यय कर दिया करे। लेकिन हदीस में यह भी उल्लेख है कि आप किसी गरीब या लाचार की मदद इस प्रकार करें जैसे वह आपका फर्ज (कर्त्तव्य) हो , अर्थात दाएं हाथ से दान करें तो बाएं हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए कि दाएं ने क्या दिया। मन में यह अहंकार कभी नहीं आना चाहिए कि मैंने किसी की मदद कर दी इसलिए बदले में अल्लाह मुझे आखिरात (मरने के पश्चात की दुनिया) में जन्नत (स्वर्ग) देगा। अल्लाह कहता है कि मैं अहंकार बर्दाश्त नहीं करता तथा अहंकारी को प्रतिफल के रूप में कुछ भी मिलने वाला नहीं। इसलिए दान करें तो किसी को दिखाकर या ढिंढोरा पीटकर नहीं , बल्कि शुद्ध मन से ही करें। कुछ लोग नाम कमाने तथा समाज में प्रतिष्ठा पाने के ख्याल से ही दान-पुण्य किया करते हैं तथा इसका फायदा कई रूपों में उठाते हैं। लेकिन इस्लाम में अपनी प्रतिष्ठा के लिए दान-पुण्य करना घोर पाप है , जो अल्लाह के घर क्षमा के योग्य नहीं है। इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं ईमान (कलमा) और नमाज के बाद जकात का स्थान है , अर्थात् जकात इस्लाम का तीसरा फर्ज है। कुरान शरीफ में भी जगह-जगह पर नमाज के साथ-साथ जकात की ताकीद दी गई है। उसमें अनेक जगहों पर स्पष्ट किया गया है कि नमाज पढ़ो और जकात दिया करो। इससे ज्ञात होता है कि जो जकात नहीं देते , वे सच्चे मुसलमान नहीं हैं। कुरान में यह भी लिखा है कि उन सभी का अंत बहुत बुरा होने वाला है , जो जकात (दान-पुण्य) नहीं देते। वे आखिरात (प्रलय) में नरक के भागीदार बनेंगे। दान-पुण्य एक सामाजिक कर्त्तव्य भी है , जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के करीब ले जाता है तथा दूसरे लोगों के दुख को बांटने का एक प्रमुख तरीका भी। दान मनुष्य तभी करता है , जब वह सामाजिक होता है , परंतु सामाजिक बनने के लिए हृदय एवं आत्मा का शुद्ध होना अति आवश्यक है। दान पुण्य तो दुनिया के सभी धर्मों में करने की व्यवस्था है , लेकिन दान कर देना मात्र ही बड़ी बात नहीं , वास्तव में जकात या दान हमें कमजोरों और गरीबों की मदद करना सिखाता है , क्योंकि अल्लाह के सामने कोई बड़ा या छोटा नहीं , सभी एक समान हैं। उसके सामने न कोई राजा है और न कोई रंक - क्योंकि समाज में सभी एक दूसरे के पूरक हैं। अमीरों के बिना गरीबों की कल्पना नहीं और गरीबों के बिना अमीरों की कोई बिसात नहीं। हम भी दूसरों से किसी मदद की उम्मीद तभी रख सकते हैं , जब हम खुद भी दूसरों के मददगार रहे हों। दुनिया में सबसे ज्यादा खुश वही है जो दानी है। किसी लाचार की सहायता करना एक ऐसे सच्चे सुख की अनुभूति है जो किसी अन्य कार्य में नहीं मिल सकता। जकात या दान का जो फल और पारितोषिक अल्लाह की ओर से परलोक में मिलेगा , उसके अलावा इस लौकिक जीवन में भी उससे बड़े लाभ हैं। दान करने वाले इंसान का हृदय प्रसन्न और संतुष्ट रहता है। गरीबों को उससे डाह नहीं होती , वरन वह उसका भला चाहते हैं और उसके कल्याण की कामना करते हैं। समाज में ऐसे ही व्यक्ति को लोगों का सम्मान , प्रेम और सहानुभूति प्राप्त होती है। इस धरती पर किसी शख्स पर खुदा की इससे बड़ी मेहरबानी और क्या होगी!
यह कहावत पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। सभी धर्मों में नेकी (पुण्य) को एक अहम मुकाम हासिल है और दुनिया के सभी धर्मों में दान-पुण्य को प्राथमिकता दी गई है। किसी गरीब की तन , मन , धन से मदद करना ही दान (खैरात) है। खैरात करना या दान करना किसी मनुष्य को औरों से अलग करता है और उसे श्रेष्ठता प्रदान करता है। इस्लाम में भी जकात , खैरात , सदका , फितरा इत्यादि को बड़ा पुण्य माना गया है , साथ ही जकात (एक विशेष प्रकार का दान) को मुसलमानों पर फर्ज (कर्त्तव्य) करार दिया है। जकात का अर्थ है कि जिसके पास एक नियत राशि में धन-संपत्ति हो , वह हिसाब लगाकर ईमानदारी से उसका चालीसवां भाग निर्धनों पर या नेकी की अन्य बातों पर व्यय कर दिया करे। लेकिन हदीस में यह भी उल्लेख है कि आप किसी गरीब या लाचार की मदद इस प्रकार करें जैसे वह आपका फर्ज (कर्त्तव्य) हो , अर्थात दाएं हाथ से दान करें तो बाएं हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए कि दाएं ने क्या दिया। मन में यह अहंकार कभी नहीं आना चाहिए कि मैंने किसी की मदद कर दी इसलिए बदले में अल्लाह मुझे आखिरात (मरने के पश्चात की दुनिया) में जन्नत (स्वर्ग) देगा। अल्लाह कहता है कि मैं अहंकार बर्दाश्त नहीं करता तथा अहंकारी को प्रतिफल के रूप में कुछ भी मिलने वाला नहीं। इसलिए दान करें तो किसी को दिखाकर या ढिंढोरा पीटकर नहीं , बल्कि शुद्ध मन से ही करें। कुछ लोग नाम कमाने तथा समाज में प्रतिष्ठा पाने के ख्याल से ही दान-पुण्य किया करते हैं तथा इसका फायदा कई रूपों में उठाते हैं। लेकिन इस्लाम में अपनी प्रतिष्ठा के लिए दान-पुण्य करना घोर पाप है , जो अल्लाह के घर क्षमा के योग्य नहीं है। इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं ईमान (कलमा) और नमाज के बाद जकात का स्थान है , अर्थात् जकात इस्लाम का तीसरा फर्ज है। कुरान शरीफ में भी जगह-जगह पर नमाज के साथ-साथ जकात की ताकीद दी गई है। उसमें अनेक जगहों पर स्पष्ट किया गया है कि नमाज पढ़ो और जकात दिया करो। इससे ज्ञात होता है कि जो जकात नहीं देते , वे सच्चे मुसलमान नहीं हैं। कुरान में यह भी लिखा है कि उन सभी का अंत बहुत बुरा होने वाला है , जो जकात (दान-पुण्य) नहीं देते। वे आखिरात (प्रलय) में नरक के भागीदार बनेंगे। दान-पुण्य एक सामाजिक कर्त्तव्य भी है , जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के करीब ले जाता है तथा दूसरे लोगों के दुख को बांटने का एक प्रमुख तरीका भी। दान मनुष्य तभी करता है , जब वह सामाजिक होता है , परंतु सामाजिक बनने के लिए हृदय एवं आत्मा का शुद्ध होना अति आवश्यक है। दान पुण्य तो दुनिया के सभी धर्मों में करने की व्यवस्था है , लेकिन दान कर देना मात्र ही बड़ी बात नहीं , वास्तव में जकात या दान हमें कमजोरों और गरीबों की मदद करना सिखाता है , क्योंकि अल्लाह के सामने कोई बड़ा या छोटा नहीं , सभी एक समान हैं। उसके सामने न कोई राजा है और न कोई रंक - क्योंकि समाज में सभी एक दूसरे के पूरक हैं। अमीरों के बिना गरीबों की कल्पना नहीं और गरीबों के बिना अमीरों की कोई बिसात नहीं। हम भी दूसरों से किसी मदद की उम्मीद तभी रख सकते हैं , जब हम खुद भी दूसरों के मददगार रहे हों। दुनिया में सबसे ज्यादा खुश वही है जो दानी है। किसी लाचार की सहायता करना एक ऐसे सच्चे सुख की अनुभूति है जो किसी अन्य कार्य में नहीं मिल सकता। जकात या दान का जो फल और पारितोषिक अल्लाह की ओर से परलोक में मिलेगा , उसके अलावा इस लौकिक जीवन में भी उससे बड़े लाभ हैं। दान करने वाले इंसान का हृदय प्रसन्न और संतुष्ट रहता है। गरीबों को उससे डाह नहीं होती , वरन वह उसका भला चाहते हैं और उसके कल्याण की कामना करते हैं। समाज में ऐसे ही व्यक्ति को लोगों का सम्मान , प्रेम और सहानुभूति प्राप्त होती है। इस धरती पर किसी शख्स पर खुदा की इससे बड़ी मेहरबानी और क्या होगी!