
पंथ
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अल्लमप्रभु : (१२ वे शतक). वीरशैव पंथाचे एक श्रेष्ठ संत व तत्त्ववेत्ते. त्यांना ‘प्रभुदेव’ असेही म्हणतात. ते⇨बसवांचे समकालीन असून त्यांच्यापेक्षा वयाने मोठे होते. त्यांचा जन्म शिमोगा जिल्ह्यातील (म्हैसूर राज्य) बळ्ळिगावी येथे झाल्याचे मानतात. तथापि त्यांच्या जीवनाबाबत अधिकृत माहिती मिळत नाही. ⇨चामरस (सु. १४३०) नावाच्या कवीने प्रभुलिंगलीले ह्या कन्नड काव्यग्रंथात (ब्रह्मदासकृत मराठी ओवीबद्ध अनुवाद लीलाविश्वंभर – १७२२) अल्लमप्रभूंचे चरित्र वर्णन केले आहे. चामरसापूर्वी हरिहरकृत प्रभुदेव रगळे हरीश्वरकृत प्रभुदेव पुराण इ. काव्यग्रंथांतही त्यांची चरित्रपर माहिती आहे. विरूपाक्षकृत चेन्नबसव पुराणातही (१५८५) त्यांची चरित्रपर माहिती मिळते. तथापि उपर्युक्त सर्व ग्रंथांतील माहिती सांप्रदायिक व पुराणपद्धतीची आहे. एवढे मात्र खरे, की वीरशैव पंथात अल्लमप्रभूंना फार महत्त्वाचे व आदराचे स्थान आहे. त्यांच्या वचनांवरून ते अत्यंत वैराग्यसंपन्न, ज्ञानी, विचारवंत, स्पष्टवक्ते व साक्षात्कारी पुरुष होते असे दिसते. त्यांनी वीरशैव पंथाचा प्रचार व प्रसार केला. सिद्धावस्था प्राप्त झाल्यावर अल्लमप्रभू कल्याण (हल्लीचे बसवकल्याण) येथे गेले. तेथे बसवांनी त्यांचा आध्यात्मिक अधिकार मान्य करून त्यांना शिवानुभवमंटपाच्या (वीरशैवांची धार्मिक संघटना) अध्यक्षपदी सन्मानाने बसविले. काही दिवसांनंतर आंध्र प्रदेशातील श्रीशैलम् येथे जाऊन अल्लमप्रभू समाधिस्थ झाले. बसवांच्या अगोदर त्यांनी समाधी घेतली.
शूम्यसंपादने ह्या प्रसिद्ध ग्रंथात अल्लमप्रभूंची वचने संकलित केलेली आहेत. त्यावरील अनेक टीकाग्रंथ उपलब्ध आहेत. याशिवाय त्यांच्या नावावरील अन्य ग्रंथांत षटस्थळज्ञानचारित्र्य, सृष्टीयवचन, मंत्रमाहात्म्य, बेडगिनवचन, कालज्ञानवचन आणि मंत्रगौप्य यांचा अंतर्भाव होतो. बेडगिनवचनमधील वचने प्रख्यात असून ती गूढार्थक आहेत. त्यांत त्यांचे आध्यात्मिक विचार आलेले आहेत. त्यांनी आपल्या वचनांतून तत्कालीन समाजातील अनिष्ट रूढी, अंधश्रद्धा, जातिभेद, अज्ञान, दंभ इत्यादींवर कठोर टीकाही केलेली आहे. तसेच त्यांनी केवळ पंथीय धर्मोपदेशावर भर न देता विशाल मानवी तत्त्वांचाही पुरस्कार केला आहे.‘गुहेश्वर’ अशी नाममुद्रिका ते आपल्या वचनांतून योजितात.
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प्रणामी सम्प्रदाय (श्रीकृष्ण प्रणामी संप्रदाय) एक हिन्दू सम्प्रदाय है जिसमे सर्वेसर्वा ईश्र्वर "राज जी" (सदचित्त आनन्द) को मानने वाले अनुयायी शामिल है। यह संप्रदाय अन्य धर्मों की तरह बहुईश्वर में विश्वास नहीं रखता। यह ४००-वर्ष प्राचीन संप्रदाय है। इसकी स्थापना देवचंद्र महाराज द्वारा हुई तथा इसका प्रचार प्राणनाथ स्वामी व उनके शिष्य महाराज छत्रसाल ने किया। जामनगर में नवतनपुरी धाम प्रणामी धर्म का मुख्य तीर्थ स्थल है। इसे श्री कृष्ण प्रणामी धर्म या निजानंद सम्प्रदाय या परनामी संप्रदाय भी कहते हैं।

परब्रह्म परमात्मा श्री राज जी एवं उनकी सह-संगिनी श्री श्यामा महारानी जी इस ब्रह्माण्ड के पालनहार एवं रचयिता है। इस संप्रदाय में जो तारतम ग्रन्थ है , वो स्वयं परमात्मा की स्वरुप सखी इंद्रावती ने प्राणनाथ के मनुष्य रूप में जन्म लेकर लिखा। वाणी का अवतरण हुआ और कुरान , बाइबल , भगवत आदि ग्रंथो के भेद खुले। प्रणामियो को ईश्वर ने ब्रह्म आत्मा घोषित किया है। अर्थात ब्रह्मात्मा के अंदर स्वयं परमात्मा का वास होता है। ये ब्रह्मात्माएँ परमधाम में श्री राज जी एवं श्यामा महारानी जी के संग गोपियों के रूप में रहती है। कृष्ण (केवल 11 वर्ष 52 दिन तक के गोपी कृष्ण के रूप में , बाकी जीवन में कृष्ण विष्णु अवतार थे। कृष्ण ने गीता भी परमात्मा अवतार - अक्षरातीत अवतार में ही कही है। ) और सोहलवीं शताब्दी में श्री प्राणनाथ के रूप में ईश्वर के रूप में जन्म लिया।
इस सम्प्रदाय में 11 साल और 52 दिन की आयु वाले बाल कृष्ण को पूजा जाता है। क्योकि इस आयु तक कृष्ण रासलीला किया करते थे। पाठक गलत न समझे कि कृष्ण अलग अलग है। कृष्ण तो केवल एक मनुष्य रूप का नाम है कोई ईश्वर का नही। बाल्यकाल में कृष्ण परमात्मा के अवतार थे और बाकी जीवन में विष्णु अवतार।
इतिहास
हाराज (1581-1655), का जन्म सिंध प्रांत के उमरकोट गांव में हुआ था। बाल्यकाल में ह़ी उनमे संत प्रवृत्ति देखी गई। अपनी सोलह बरस की उम्र में, वें संसार को त्याग ब्रह्म-ज्ञान (दिव्य ज्ञान) की खोज में, पहले कच्छ के भुज और फिर जामनगर के लिए, निकल पड़े। देवचन्द्रजी ने धर्म की एक नई धारा, जिसे उन्होंने निजानंद संप्रदाय कहा, को खोजने और उसे ठोस रूप देने का कार्य किया। वह जामनगर आकर बस गए, जहां उन्होंने धार्मिक मतभेद और सामाजिक वर्ग के असम्माननीय व्यक्तियों के लिए सरल भाषा में सुगम तरीके से वेद, वेदांत ज्ञान और भगवतम की व्याख्या रची तथा उन्हें "तारतम" सिखाया। उनके अनुयायियों को बाद में सुंदर साथ या प्रणामी के रूप में जाना जाने लगा।
प्रणामी धर्म के आगे के प्रसार का श्रेय, उनके योग्य शिष्य और उत्तराधिकारी, महामति प्राणनाथ जी (मेहराज ठाकुर) (1618-1694) को जाता है, जो जामनगर राज्य के दीवान केशव ठाकुर के पुत्र थे। उन्होंने धर्म के प्रसार के लिए पूरे भारत की यात्रा की। उन्होंने कुलजम स्वरूप नामक कृति रची, जिसे छह भाषाओं में लिखा गया - गुजराती, सिंधी, अरबी, फारसी, उर्दू और हिन्दी, साथ ही इसमें और कई अन्य प्रचलित भाषाओं के शब्द भी लिए गए। कुलजम स्वरूप उर्फ कुल्ज़म स्वरूप एवं मेहर सागर नामक उनकी कृति, अब धर्म का मुख्य पाठ है। अपने जीवनकाल के दौरान उन्होंने हरिद्वार में कुंभ मेले में भी भाग लिया तथा कई संतों और अपने समय के धार्मिक नेताओं से मुलाकात की, जो उनके ज्ञान और शक्ति से प्रभावित थे।
बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल (1649-1731), महामति प्राणनाथजी के प्रबल शिष्य और प्रणामी धर्म के अनुयायी थे। उनकी भेंट 1683 में पन्ना के निकट मऊ में संपन्न हुई। उनके भतीजे देव करण जी, जो पूर्व में स्वामी प्राणनाथ जी से रामनगर में मिल चुके थे, ने इस भेंट के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। छत्रसाल प्राणनाथ जी से अत्यधिक प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गए। महाराजा छत्रसाल जब उनसे मिलने आए, वह मुगलों के खिलाफ युद्ध के लिए जा रहे थे। स्वामी प्राणनाथ जी ने उन्हें अपनी तलवार दे दी, एक दुपट्टे से उनके सिर को ढंका और कहा "आप सदा विजयी होंगे। आपकी भूमि में हीरे की खानों की खोज होंगी और आप एक महान राजा बनेंगे।" उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई, आज भी पन्ना क्षेत्र अपने हीरे की खानों के लिए प्रसिद्ध है। स्वामी प्राणनाथ जी छत्रसाल के केवल धार्मिक गुरू नहीं थे; वरन वह उन्हें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों में भी निर्देशित करते थे। पन्ना में हीरे मिलना स्वामी प्राणनाथ जी द्वारा दिया वरदान ही था जिससे महाराजा छत्रसाल समृद्ध हो गए।
एक गौरतलब बात - महात्मा गांधी की मां पुतलीबाई प्रणामी संप्रदाय की थी। गांधी की अपनी पुस्तक सत्य के साथ मेरे प्रयोग में इस संप्रदाय के बारे में उल्लेख है - "प्रणामी ऐसा संप्रदाय है जिसमें कुरान और गीता दोनों का सर्वोत्तम प्राप्त होता है, एक लक्ष्य की खोज - ईश्वर।"
पवित्र ग्रंथ
तारतम सागर
तारतम सागर महामति प्राणनाथ जी द्वारा धर्म प्रचार-प्रसार के लिए देश-विदेश में दिए गए उपदेशों का संग्रह है जिसमें प्रणामी धर्म के सम्पूर्ण सिद्धान्त तथा दर्शन समाविष्ट हैं। चौदह कृतियों का यह पवित्र संकलन वैदिक ग्रंथों, कतेब (सामी ग्रंथो- कुरान, तोरा, दाउद व बाइबल के गान) के साथ ही सर्वोच्च धाम परमधाम के विवरण जिसे मुस्लिम अर्शे अज़ीम (लाहुत) और इसाई सर्वोच्च स्वर्ग कहते हैं, के रहस्योद्घाटन से मिलकर बना है। इस पवित्र संकलन के कारण दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है। श्री कृष्ण प्रणामी आस्था के अनुयायी इस पवित्र ग्रंथ की पूजा स्वयं प्रभु की तरह करते हैं।
तारतम सागर में संकलित चौदह कृतियाँ है - रास, प्रकाश, षट्ऋतु, कलश, सनंध, किरंतन, खुलासा, खिलवत, परिक्रमा, सागर, सिनगार, सिंधी, मारफत सागर और कयामतनामा। इसमें कुल 18,758 चौपाईयाँ संकलित हैं।
विराट
वृति/चर्चाणी
अक्षरातीत श्रीकृष्न का वर्णन धर्मग्रन्थों में इस प्रकार किया गया है-
चिदादित्यं किशोरांगं परेधाम्नि विराजितम्।
स्वरुपं सच्चिदानन्दं निर्विकारं सनातनम् ॥ -- ब्रह्मवैवर्त पुराण
" चिदादित्य (सदा चमकने वाला) , किशोर अंगों वाला, परमधाम में विराजित, सच्चिदानन्द स्वरूप, निर्विकार, और सनातन'

परब्रह्म परमात्मा श्री राज जी एवं उनकी सह-संगिनी श्री श्यामा महारानी जी इस ब्रह्माण्ड के पालनहार एवं रचयिता है। इस संप्रदाय में जो तारतम ग्रन्थ है , वो स्वयं परमात्मा की स्वरुप सखी इंद्रावती ने प्राणनाथ के मनुष्य रूप में जन्म लेकर लिखा। वाणी का अवतरण हुआ और कुरान , बाइबल , भगवत आदि ग्रंथो के भेद खुले। प्रणामियो को ईश्वर ने ब्रह्म आत्मा घोषित किया है। अर्थात ब्रह्मात्मा के अंदर स्वयं परमात्मा का वास होता है। ये ब्रह्मात्माएँ परमधाम में श्री राज जी एवं श्यामा महारानी जी के संग गोपियों के रूप में रहती है। कृष्ण (केवल 11 वर्ष 52 दिन तक के गोपी कृष्ण के रूप में , बाकी जीवन में कृष्ण विष्णु अवतार थे। कृष्ण ने गीता भी परमात्मा अवतार - अक्षरातीत अवतार में ही कही है। ) और सोहलवीं शताब्दी में श्री प्राणनाथ के रूप में ईश्वर के रूप में जन्म लिया।
इस सम्प्रदाय में 11 साल और 52 दिन की आयु वाले बाल कृष्ण को पूजा जाता है। क्योकि इस आयु तक कृष्ण रासलीला किया करते थे। पाठक गलत न समझे कि कृष्ण अलग अलग है। कृष्ण तो केवल एक मनुष्य रूप का नाम है कोई ईश्वर का नही। बाल्यकाल में कृष्ण परमात्मा के अवतार थे और बाकी जीवन में विष्णु अवतार।
इतिहास
हाराज (1581-1655), का जन्म सिंध प्रांत के उमरकोट गांव में हुआ था। बाल्यकाल में ह़ी उनमे संत प्रवृत्ति देखी गई। अपनी सोलह बरस की उम्र में, वें संसार को त्याग ब्रह्म-ज्ञान (दिव्य ज्ञान) की खोज में, पहले कच्छ के भुज और फिर जामनगर के लिए, निकल पड़े। देवचन्द्रजी ने धर्म की एक नई धारा, जिसे उन्होंने निजानंद संप्रदाय कहा, को खोजने और उसे ठोस रूप देने का कार्य किया। वह जामनगर आकर बस गए, जहां उन्होंने धार्मिक मतभेद और सामाजिक वर्ग के असम्माननीय व्यक्तियों के लिए सरल भाषा में सुगम तरीके से वेद, वेदांत ज्ञान और भगवतम की व्याख्या रची तथा उन्हें "तारतम" सिखाया। उनके अनुयायियों को बाद में सुंदर साथ या प्रणामी के रूप में जाना जाने लगा।
प्रणामी धर्म के आगे के प्रसार का श्रेय, उनके योग्य शिष्य और उत्तराधिकारी, महामति प्राणनाथ जी (मेहराज ठाकुर) (1618-1694) को जाता है, जो जामनगर राज्य के दीवान केशव ठाकुर के पुत्र थे। उन्होंने धर्म के प्रसार के लिए पूरे भारत की यात्रा की। उन्होंने कुलजम स्वरूप नामक कृति रची, जिसे छह भाषाओं में लिखा गया - गुजराती, सिंधी, अरबी, फारसी, उर्दू और हिन्दी, साथ ही इसमें और कई अन्य प्रचलित भाषाओं के शब्द भी लिए गए। कुलजम स्वरूप उर्फ कुल्ज़म स्वरूप एवं मेहर सागर नामक उनकी कृति, अब धर्म का मुख्य पाठ है। अपने जीवनकाल के दौरान उन्होंने हरिद्वार में कुंभ मेले में भी भाग लिया तथा कई संतों और अपने समय के धार्मिक नेताओं से मुलाकात की, जो उनके ज्ञान और शक्ति से प्रभावित थे।
बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल (1649-1731), महामति प्राणनाथजी के प्रबल शिष्य और प्रणामी धर्म के अनुयायी थे। उनकी भेंट 1683 में पन्ना के निकट मऊ में संपन्न हुई। उनके भतीजे देव करण जी, जो पूर्व में स्वामी प्राणनाथ जी से रामनगर में मिल चुके थे, ने इस भेंट के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। छत्रसाल प्राणनाथ जी से अत्यधिक प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गए। महाराजा छत्रसाल जब उनसे मिलने आए, वह मुगलों के खिलाफ युद्ध के लिए जा रहे थे। स्वामी प्राणनाथ जी ने उन्हें अपनी तलवार दे दी, एक दुपट्टे से उनके सिर को ढंका और कहा "आप सदा विजयी होंगे। आपकी भूमि में हीरे की खानों की खोज होंगी और आप एक महान राजा बनेंगे।" उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई, आज भी पन्ना क्षेत्र अपने हीरे की खानों के लिए प्रसिद्ध है। स्वामी प्राणनाथ जी छत्रसाल के केवल धार्मिक गुरू नहीं थे; वरन वह उन्हें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों में भी निर्देशित करते थे। पन्ना में हीरे मिलना स्वामी प्राणनाथ जी द्वारा दिया वरदान ही था जिससे महाराजा छत्रसाल समृद्ध हो गए।
एक गौरतलब बात - महात्मा गांधी की मां पुतलीबाई प्रणामी संप्रदाय की थी। गांधी की अपनी पुस्तक सत्य के साथ मेरे प्रयोग में इस संप्रदाय के बारे में उल्लेख है - "प्रणामी ऐसा संप्रदाय है जिसमें कुरान और गीता दोनों का सर्वोत्तम प्राप्त होता है, एक लक्ष्य की खोज - ईश्वर।"
पवित्र ग्रंथ
तारतम सागर
तारतम सागर महामति प्राणनाथ जी द्वारा धर्म प्रचार-प्रसार के लिए देश-विदेश में दिए गए उपदेशों का संग्रह है जिसमें प्रणामी धर्म के सम्पूर्ण सिद्धान्त तथा दर्शन समाविष्ट हैं। चौदह कृतियों का यह पवित्र संकलन वैदिक ग्रंथों, कतेब (सामी ग्रंथो- कुरान, तोरा, दाउद व बाइबल के गान) के साथ ही सर्वोच्च धाम परमधाम के विवरण जिसे मुस्लिम अर्शे अज़ीम (लाहुत) और इसाई सर्वोच्च स्वर्ग कहते हैं, के रहस्योद्घाटन से मिलकर बना है। इस पवित्र संकलन के कारण दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है। श्री कृष्ण प्रणामी आस्था के अनुयायी इस पवित्र ग्रंथ की पूजा स्वयं प्रभु की तरह करते हैं।
तारतम सागर में संकलित चौदह कृतियाँ है - रास, प्रकाश, षट्ऋतु, कलश, सनंध, किरंतन, खुलासा, खिलवत, परिक्रमा, सागर, सिनगार, सिंधी, मारफत सागर और कयामतनामा। इसमें कुल 18,758 चौपाईयाँ संकलित हैं।
विराट
वृति/चर्चाणी
अक्षरातीत श्रीकृष्न का वर्णन धर्मग्रन्थों में इस प्रकार किया गया है-
चिदादित्यं किशोरांगं परेधाम्नि विराजितम्।
स्वरुपं सच्चिदानन्दं निर्विकारं सनातनम् ॥ -- ब्रह्मवैवर्त पुराण
" चिदादित्य (सदा चमकने वाला) , किशोर अंगों वाला, परमधाम में विराजित, सच्चिदानन्द स्वरूप, निर्विकार, और सनातन'
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महानूभाव पंथा बदल अधिक माहिती(संकलित) पुरवण्याचा प्रयत्न करतो....
ज्ञानेश्वरांच्या काही काळ अगोदर महानुभावसंप्रदाय महाराष्ट्रात उदयास आला. ‘महान अनुभवोस्तेजा बलं वा यस्य सः महानुभावः’ या दृष्टीने मोठा तेजाने युक्त असलेल्या लोकांचा मार्ग, तो महानुभाव पंथ, असे म्हटले जाते. वि.भि. कोलते यांच्या मते (पहा : लोकशिक्षण, वर्ष ७, अंक ४/५) या संप्रदायाचे मूळचे नाव ‘परमार्ग’ असे असून महानुभाव पंथ हे नाव प्रथम एकनाथांनी वापरले असल्याचे शं. गो. तुळपुळे म्हणतात. महानुभाव पंथाचे मूळ पुरुष गोविंदप्रभू ऊर्फ गुंडम राऊळ हे होते परंतु या पंथाचे प्रणेते मात्र चक्रधर आहेत. चक्रधरांचा कालखंड (इ. स. ११९४ ते १२८२) हा महाराष्ट्रातील ऐश्वर्याचा आणि समृद्धीचा कालखंड समजला जातो. देवगिरीच्यायादवांची कारकीर्द या वेळी महाराष्ट्रात होती.
समाजात चातुर्वर्ण्याची मिरासदारी वाढलेली असण्याच्या काळात चक्रधरांनी शंकराचार्य(अद्वैत) व रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत) यांच्या तत्त्वज्ञानाचा मिलाफ करून (ज्ञान आणि भक्ती यांचा समन्वय करून) आपल्या द्वैती तत्त्वज्ञानाचा प्रसार केला आणि सामान्य देवतांचे प्रस्थ कमी केले. देवतांच्या पूजेचा निषेध केला आणि चातुर्वर्ण्यावर हल्ला चढविला. आपल्या पंथात त्यांनी स्त्रिया, शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय अशा सर्वांनाच संन्यास घेण्याची सोय ठेवली. संपूर्ण अहिंसा आणि कडकडीत वैराग्य यांचे पालन आपल्या संप्रदायात अपरिहार्य मानले. धर्माचे रहस्य आपल्या बोलीभाषेत सांगणाऱ्या जैन, लिंगायत, नाथ इत्यादी संप्रदायांप्रमाणो जनभाषेत आपले तत्त्वज्ञान सांगण्याचा प्रयत्न केला. चक्रधर आणि पुढे ज्ञानेश्वर व तुकाराम यांनी केलेला लोकभाषेचा पुरस्कार हे या काळातील एक मोठे सांस्कृतिक कार्य होते.
●ओळख
महानुभाव पंथ महाराष्ट्रात उगम पावलेला असला तरी त्याचा प्रसार उत्तर भारतात पंजाबआणि काश्मीरपर्यंत झाला. उत्तरेकडे या संप्रदायाला जयकृष्णी पंथ म्हटले जाते. आजही उत्तर भारतात या संप्रदायाचे आश्रम व महंत आहेत. या संप्रदायाच्या समाजावादी व चातुर्वर्ण्यविरोधी विचारसरणीमुळे मोठय़ा प्रमाणात अनुयायी लाभले. महानुभाव संप्रदायाचे तेरा आम्नाय आहेत. कवीश्वर आम्नाय हा त्यांतील एक होत. मुरारी बास हे याच आम्नायातले आहेत. तत्त्वाचिंतनात्मक लेखन हे त्यांचे एक वैशिष्ट्य आहे. ग्रंथावर भाष्य-महाभाष्य लिहिली गेली. भाष्यलेखनाची परंपरा व्यापक, प्रदीर्घ व भाष्य-लेखन सातत्य टिकविणारी आहे. महानुभाव संप्रदायाचे प्रवर्तक व अवतारस्वरूप श्री चक्रधरस्वामीयांनी बाराव्या तेराव्या शतकात आपल्या संप्रदायाच्या तत्त्वज्ञानाची वैशिष्ट्ये सूत्ररूपाने 'दृष्टान्तपाठ' या ग्रंथात सांगितली. या ग्रंथावरील भाष्ये अनेक महानुभाव संतकवींनी व भाष्यकारांनी केली. हा इतिहासही महानुभाव साहित्याचे वेगळपण सिद्ध करणारा आहे. याच भाष्यलेखनमालिकेतील मुरारीबासांचा 'दृष्टान्तप्रबोध' हा ग्रंथ होय. या संप्रदायातील अनेक भाष्यकार संस्कृतज्ञ विद्वान आणि त्यांनी आपले भाष्यग्रंथ स्वामींच्या आदेशानुसार लोकभाषा मराठीतून लिहिले आहे.
यादव काळात, सुमारे १३ व्या शतकात महानुभाव हा अत्यंत लोकप्रिय पंथ होता. या पंथाची स्थापना करणाऱ्या चक्रधर स्वामींना लोक "पंचकृष्णां" पैकी एक अवतार मानीत असत. या पंथांची वैदिक धर्मावर श्रद्धा नसली तरी त्याबद्दल स्वामींना आस्था होती. एक सामाजिक गरज म्हणून चातुर्वर्ण्यावर महानुभावांचा विश्वास आहे. मात्र तत्त्व म्हणून ते जातिभेद, स्त्री-पुरुष भेद मानीत नाहीत. ते कृष्णभक्त आहेत आणि कृष्णाचे पाच अवतार झाले असे मानतात. ते भक्तिमार्गी असून काही नियम पाळतात. त्यातील प्रमुख चार नियम म्हणजे शणागती, प्रसाद सेवा, मूर्तिध्यान वा मूर्तिज्ञान आणि नामस्मरण हे होत. यतिधर्म (संन्यास) व गृहस्थधर्म या दोहोवर त्यांचा भर आहे. स्त्रियांना मठांत संन्यासिनी म्हणून जगण्याचा अधिकार आहे. मात्र विधवांना हा हक्क नाही. ते अहिंसा, शाकाहार, सात्त्विक जीवन, भिक्षा मागणे व देशभ्रमण या गोष्टी काटेकोरपणे पाळतात. त्यांनी एक सांकेतिक लिपी शोधून काढली. ती नऊ तऱ्हांनी लिहिता येते. मराठी भाषेवर महानुभावांचे फार मोठे उपकार आहेत; तसेच त्यांनी भारतीय तत्त्वज्ञानात मोलाची भर घातली आहे. त्यांचे सूत्रपाठ, सतिग्रंथ, आख्यान काव्य, साधना ग्रंथ, टीकाग्रंथ आणि भाष्यग्रंथ अत्यंत मोलाचे आहेत. सोळाव्या शतकात महानुभाव पंथाचा प्रसार पंजाबमध्ये झाला. कृष्णराज नावाच्या पंजाबी व्यापाऱ्याने हा धर्मग्रंथ तिकडे नेला. ते पुढे कृष्णमुनी म्हणून प्रसिद्धीस आले. त्यांचा हा संप्रदाय जयकृष्ण पंथ म्हणून पंजाबमध्ये प्रसिद्ध आहे. मराठीत लिहिलेले सूत्रपाठ हिंदी अथवा पंजाबी मातृभाषा असलेले अनुयायी अद्यापही वाचतात. सतराव्या शतकात मोगल बादशहा औरंगजेब याने पंथाला जिझिया करापासून मुक्त केले. कारण त्याला ते हिन्दू फकीर वाटले. गेली साडेसातशे वर्षे हा पंथ महाराष्ट्रात, मध्य प्रदेशात व पंजाबमध्ये अस्तित्वात आहे. महानुभावांची कृष्णाची मंदिरे मुंबई, दिल्ली व अमृतसर या ठिकाणी आढळतात.
◆महानुभावीय तत्त्वज्ञान
‘सूत्रपाठ’ या ग्रंथास महानुभावांचा वेद असे संबोधले जाते. त्यातून महानुभावांचे सारे तत्त्वज्ञान विशद झाले आहे. महानुभाव जीव, देवता, प्रपंच व परमेश्वर या वस्तू मुख्य व नित्य अशा मानतात. त्यांच्या मते, या चार वस्तू स्वतंत्र, नित्य, अनादि व अनंत आहेत. जीव, देवता, प्रपंच व परमेश्वर यांचे परस्परांशी किंवा सर्वांशी कधीच ऐक्य साधले जात नाही, असे हा पंथ मानतो. म्हणूनच त्यास ‘द्वैती पंथ’ म्हणतात. ‘देवता या नित्यबद्ध आहेत, जीव बद्धमुक्त आहेत, परमेश्वर नित्यमुक्त आहे व प्रपंच अनित्य आहे’ असे या तत्त्वज्ञानाचे सूत्र आहे.
●जीव : जीव बद्धमुक्त म्हणजे बद्ध असूनही मुक्तीस पात्र असणारा असा आहे. त्याला मायेचे बंधन आहे. तो मूलतः स्फटिकाप्रमाणे शुभ्र आहे पण अविद्येमुळे त्याला काळसरपणा प्राप्त झालेला आहे. तांदळाच्या दाण्यावर जसे पाच पदर असतात, तसा जीव हा ‘पाच पिशीं’नी युक्त असतो. अनादि, अविद्या, अन्यथाज्ञान, जीवत्व व आदिमळ या त्या पाच पिशी होत. यासाठी उद्धवगीतेत मडक्याच्या उतरंडीचा समर्पक दृष्टांत दिला आहे. यांतील सर्वांत तळाचे मडके अविद्या हे आहे. हे अविद्येनेच मडके फोडले म्हणजे वरची मडकी आपोआपच फुटतील.
●प्रपंच : प्रपंचास महानुभाव अनित्य मानतात. कारणप्रपंच व कार्यप्रपंच असे त्यांनी प्रपंचाचे दोन भाग केले आहेत. अव्यक्त असणारी पंचमहाभूते व त्रिगुणी म्हणजेच कारणप्रपंच होय. कार्यप्रपंचाची निर्मिती पृथ्वी, आप, तेज, वायू, आकाश ही पंचमहाभूते व सत्त्व, रज, तम हे त्रिगुण यांच्यातून झाली आहे.
●देवता : देवतांना महानुभावांनी गौण मानले आहे. परमेश्वर हा नित्यमुक्त असल्यामुळेच तो जीवाचा उद्धार करू शकतो. (परमेश्वर एकु सोडविता) परमेश्वराचे ज्ञान झाले म्हणजे, अथवा भक्ती केली म्हणजे, जीवाला मोक्ष मिळतो. मोक्ष परमेश्वराकडूनच मिळू शकतो. देवतांकडून नाही. देवतांचे कार्य सृष्टीतील जिवांना त्यांच्या कर्मांची सुखदुःखात्मक फळे देणे हे होय.
वेदान्तातील कल्पनेच्या उलट महानुभावीय ईश्वरास प्रमुख स्थान देतात आणि ब्रह्मास एक भाग मानतात. त्यांच्या मते, ईश्वर हा अनादि, नित्य, अव्यक्त, स्वयंप्रकाशी, सर्वव्यापी, ज्ञानमय, आनंदमय, सर्वसाक्षी व सर्वकर्ता असा आहे. जीवाच्या उद्धारासाठी परमेश्वर मनुष्यदेह धारण करून अवतार घेतो. ईश्वराचे स्वरूप ज्ञानामुळे ओळखता येते. शब्दज्ञान, सामान्यज्ञान, अपरोक्षज्ञान व विशेषज्ञान असे या ज्ञानाचे चार प्रकार आहेत. ज्ञानमार्ग आणि भक्तिमार्ग ही मोक्षप्राप्तीची दोन साधने आहेत.
महानुभाव चार युगांचे चार अवतार मानतात. कृतयुगात हंसावतार, त्रेतायुगात दत्तावतार, द्वापारयुगात कृष्णावतार आणि कलियुगात चक्रधरावतार असे हे अवतार होत. महानुभावांनी फक्त पाचच मूर्ती मानून त्यांची पूजा केली आहे. हे पाच अवतार हेच त्यांचे पंचकृष्ण होत. गुरूवर प्रीती करावी पण त्याला परमेश्वर समजू नये असे महानुभाव मानतात. हा पंथ वेदांबद्दल आदर बाळगणारा असला तरी वेदांना प्रमाण मानणारा नाही. महानुभाव पंचकृष्णांच्या वचनांनाच प्रमाण मानतात.
◆महानुभाव पंथाचे तत्त्वज्ञान
व्यक्तीचे श्रेष्ठत्व जन्माने नव्हे, तर त्याच्यातील तत्त्वज्ञानातून ठरते, असे सांगणारा महानुभाव हा एकच पंथ असून, येथे सर्व माणसे समान आहेत, असे काही विद्वान मानतात. त्यांच्या मते दंभ निर्माण होतात तेव्हा धर्मात अपप्रवृत्ती येतात. प्रत्यक्ष असणे व दिसणे यातील भेद संपतो, तेव्हा दंभ संपतो. त्याचवेळी समाजात परिवर्तन घडू शकते. महानुभाव पंथ हा सर्वाना सामावून घेणारा पंथ आहे. येथे सर्व समान आहेत. त्यामुळे सर्व जाती-धर्माचे लोक येथे दिसतात. येथे जातिभेद नाही, तर केवळ तत्त्वज्ञान आहे. धर्मासाठी आम्ही नाही, तर धर्म आमच्यासाठी आहे. तो साध्य नाही, तर साधन आहे. हीच पंथाची शिकवण आहे. इ.स. १२व्या शतकात मानवतेला लागलेला भेदाभेदांचा कलंक दूर करण्याचा प्रयत्न चक्रधर स्वामींनी महानुभाव पंथाच्या माध्यमातून केला.महानुभाव समप्रदाय हा अहिसा वदि आसुन अहिसा परम धर्म हे त्याचे एक महत्वाचे तत्व आहे
◆चक्रधर स्वामी सामाजिक समतेचे आद्यप्रवर्तक
बाराव्या शतकात महानुभाव पंथाचे प्रवर्तक श्री चक्रधर स्वामी यांनी केलेल्या सामाजिक परिवर्तनाने धर्मशास्त्र व साहित्याची दारे समाजातील उपेक्षितांसाठी खुली झाली. त्यामुळे श्री चक्रधर स्वामींकडेच सामाजिक समतेच्या आद्यप्रवर्तकाचा पहिला मान जातो. त्या काळानंतर हातामध्ये समाजाची सूत्रे असणाऱ्यांनी चक्रधरांच्या विचार व स्वार्थाआड येऊ पाहणाऱ्या सर्वसमावेशक विचारांना सर्वसामान्यांपासून हेतुपुरस्सर दूर ठेवले, असा आरोप होतो. चक्रधर स्वामींचे समतेचे तत्त्वज्ञानही उपेक्षित ठेवले गेले. हा त्रास जो चक्रधर स्वामींच्या आधुनिक विचारांना झाला, तोच महात्मा फुले, सावित्रीबाई, रयतेचा राजा श्री शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर या प्रवाहाविरुद्ध पोहणाऱ्या महापुरुषांनाही झाला. तीच प्रथा आजही सामाजिक व साहित्यिक क्षेत्रात दिसून येत आहे, असे काहींचे मत आहे. चक्रधरांची धर्मक्रांती ही सनातन्यांच्या डोळ्यांत एक झणझणीत अंजन होते, असे म्हटले जाते.
पहा: महानुभाव साहित्य संमेलन
आचार्य भानुकवी जामोदेकर साहित्य संघाचे पहले आद्य कवयित्री महदंबा साहित्य संमेलन जालना जिल्ह्यातील दहीपुरी येथे भरले होते. या संमेलनाचे अध्यक्ष महंत बाभुळगावकरशास्त्री होते
●प्रमुख महानुभावी व्यक्ती
केशिराज बास
नागदेवाचार्य
गोविंद प्रभू अर्थात गुंडम राऊळ
नागराजबाबा
भास्करबाबा जामोदेकर (भानुकवी)
बाभूळगांवकरबाबा शास्त्री
परसरामबास : परसरमबास हे महानुभावीय साहित्याचे अभ्यासक होते. त्यांनी लीळाचरित्राची प्रत हरवल्यावर त्याची पामाणित प्रत तयार करण्याचे काम केले.पंथातील शाखांची निर्मिती करून त्यांच्या आचार्यांना महंतपद देऊन परसरामबास यांनी पंथात एकोपा टिकवला. परसरामबास यांच्या कार्याची ओळख डॉ. भू.मा ठाकरे यांनी ’महानुभावी संशोधनाचार्य परसरामबास वाङ्मय आणि तत्त्वज्ञान’ या पुस्तकात करून दिली आहे.
ज्ञानेश्वरांच्या काही काळ अगोदर महानुभावसंप्रदाय महाराष्ट्रात उदयास आला. ‘महान अनुभवोस्तेजा बलं वा यस्य सः महानुभावः’ या दृष्टीने मोठा तेजाने युक्त असलेल्या लोकांचा मार्ग, तो महानुभाव पंथ, असे म्हटले जाते. वि.भि. कोलते यांच्या मते (पहा : लोकशिक्षण, वर्ष ७, अंक ४/५) या संप्रदायाचे मूळचे नाव ‘परमार्ग’ असे असून महानुभाव पंथ हे नाव प्रथम एकनाथांनी वापरले असल्याचे शं. गो. तुळपुळे म्हणतात. महानुभाव पंथाचे मूळ पुरुष गोविंदप्रभू ऊर्फ गुंडम राऊळ हे होते परंतु या पंथाचे प्रणेते मात्र चक्रधर आहेत. चक्रधरांचा कालखंड (इ. स. ११९४ ते १२८२) हा महाराष्ट्रातील ऐश्वर्याचा आणि समृद्धीचा कालखंड समजला जातो. देवगिरीच्यायादवांची कारकीर्द या वेळी महाराष्ट्रात होती.
समाजात चातुर्वर्ण्याची मिरासदारी वाढलेली असण्याच्या काळात चक्रधरांनी शंकराचार्य(अद्वैत) व रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत) यांच्या तत्त्वज्ञानाचा मिलाफ करून (ज्ञान आणि भक्ती यांचा समन्वय करून) आपल्या द्वैती तत्त्वज्ञानाचा प्रसार केला आणि सामान्य देवतांचे प्रस्थ कमी केले. देवतांच्या पूजेचा निषेध केला आणि चातुर्वर्ण्यावर हल्ला चढविला. आपल्या पंथात त्यांनी स्त्रिया, शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय अशा सर्वांनाच संन्यास घेण्याची सोय ठेवली. संपूर्ण अहिंसा आणि कडकडीत वैराग्य यांचे पालन आपल्या संप्रदायात अपरिहार्य मानले. धर्माचे रहस्य आपल्या बोलीभाषेत सांगणाऱ्या जैन, लिंगायत, नाथ इत्यादी संप्रदायांप्रमाणो जनभाषेत आपले तत्त्वज्ञान सांगण्याचा प्रयत्न केला. चक्रधर आणि पुढे ज्ञानेश्वर व तुकाराम यांनी केलेला लोकभाषेचा पुरस्कार हे या काळातील एक मोठे सांस्कृतिक कार्य होते.
●ओळख
महानुभाव पंथ महाराष्ट्रात उगम पावलेला असला तरी त्याचा प्रसार उत्तर भारतात पंजाबआणि काश्मीरपर्यंत झाला. उत्तरेकडे या संप्रदायाला जयकृष्णी पंथ म्हटले जाते. आजही उत्तर भारतात या संप्रदायाचे आश्रम व महंत आहेत. या संप्रदायाच्या समाजावादी व चातुर्वर्ण्यविरोधी विचारसरणीमुळे मोठय़ा प्रमाणात अनुयायी लाभले. महानुभाव संप्रदायाचे तेरा आम्नाय आहेत. कवीश्वर आम्नाय हा त्यांतील एक होत. मुरारी बास हे याच आम्नायातले आहेत. तत्त्वाचिंतनात्मक लेखन हे त्यांचे एक वैशिष्ट्य आहे. ग्रंथावर भाष्य-महाभाष्य लिहिली गेली. भाष्यलेखनाची परंपरा व्यापक, प्रदीर्घ व भाष्य-लेखन सातत्य टिकविणारी आहे. महानुभाव संप्रदायाचे प्रवर्तक व अवतारस्वरूप श्री चक्रधरस्वामीयांनी बाराव्या तेराव्या शतकात आपल्या संप्रदायाच्या तत्त्वज्ञानाची वैशिष्ट्ये सूत्ररूपाने 'दृष्टान्तपाठ' या ग्रंथात सांगितली. या ग्रंथावरील भाष्ये अनेक महानुभाव संतकवींनी व भाष्यकारांनी केली. हा इतिहासही महानुभाव साहित्याचे वेगळपण सिद्ध करणारा आहे. याच भाष्यलेखनमालिकेतील मुरारीबासांचा 'दृष्टान्तप्रबोध' हा ग्रंथ होय. या संप्रदायातील अनेक भाष्यकार संस्कृतज्ञ विद्वान आणि त्यांनी आपले भाष्यग्रंथ स्वामींच्या आदेशानुसार लोकभाषा मराठीतून लिहिले आहे.
यादव काळात, सुमारे १३ व्या शतकात महानुभाव हा अत्यंत लोकप्रिय पंथ होता. या पंथाची स्थापना करणाऱ्या चक्रधर स्वामींना लोक "पंचकृष्णां" पैकी एक अवतार मानीत असत. या पंथांची वैदिक धर्मावर श्रद्धा नसली तरी त्याबद्दल स्वामींना आस्था होती. एक सामाजिक गरज म्हणून चातुर्वर्ण्यावर महानुभावांचा विश्वास आहे. मात्र तत्त्व म्हणून ते जातिभेद, स्त्री-पुरुष भेद मानीत नाहीत. ते कृष्णभक्त आहेत आणि कृष्णाचे पाच अवतार झाले असे मानतात. ते भक्तिमार्गी असून काही नियम पाळतात. त्यातील प्रमुख चार नियम म्हणजे शणागती, प्रसाद सेवा, मूर्तिध्यान वा मूर्तिज्ञान आणि नामस्मरण हे होत. यतिधर्म (संन्यास) व गृहस्थधर्म या दोहोवर त्यांचा भर आहे. स्त्रियांना मठांत संन्यासिनी म्हणून जगण्याचा अधिकार आहे. मात्र विधवांना हा हक्क नाही. ते अहिंसा, शाकाहार, सात्त्विक जीवन, भिक्षा मागणे व देशभ्रमण या गोष्टी काटेकोरपणे पाळतात. त्यांनी एक सांकेतिक लिपी शोधून काढली. ती नऊ तऱ्हांनी लिहिता येते. मराठी भाषेवर महानुभावांचे फार मोठे उपकार आहेत; तसेच त्यांनी भारतीय तत्त्वज्ञानात मोलाची भर घातली आहे. त्यांचे सूत्रपाठ, सतिग्रंथ, आख्यान काव्य, साधना ग्रंथ, टीकाग्रंथ आणि भाष्यग्रंथ अत्यंत मोलाचे आहेत. सोळाव्या शतकात महानुभाव पंथाचा प्रसार पंजाबमध्ये झाला. कृष्णराज नावाच्या पंजाबी व्यापाऱ्याने हा धर्मग्रंथ तिकडे नेला. ते पुढे कृष्णमुनी म्हणून प्रसिद्धीस आले. त्यांचा हा संप्रदाय जयकृष्ण पंथ म्हणून पंजाबमध्ये प्रसिद्ध आहे. मराठीत लिहिलेले सूत्रपाठ हिंदी अथवा पंजाबी मातृभाषा असलेले अनुयायी अद्यापही वाचतात. सतराव्या शतकात मोगल बादशहा औरंगजेब याने पंथाला जिझिया करापासून मुक्त केले. कारण त्याला ते हिन्दू फकीर वाटले. गेली साडेसातशे वर्षे हा पंथ महाराष्ट्रात, मध्य प्रदेशात व पंजाबमध्ये अस्तित्वात आहे. महानुभावांची कृष्णाची मंदिरे मुंबई, दिल्ली व अमृतसर या ठिकाणी आढळतात.
◆महानुभावीय तत्त्वज्ञान
‘सूत्रपाठ’ या ग्रंथास महानुभावांचा वेद असे संबोधले जाते. त्यातून महानुभावांचे सारे तत्त्वज्ञान विशद झाले आहे. महानुभाव जीव, देवता, प्रपंच व परमेश्वर या वस्तू मुख्य व नित्य अशा मानतात. त्यांच्या मते, या चार वस्तू स्वतंत्र, नित्य, अनादि व अनंत आहेत. जीव, देवता, प्रपंच व परमेश्वर यांचे परस्परांशी किंवा सर्वांशी कधीच ऐक्य साधले जात नाही, असे हा पंथ मानतो. म्हणूनच त्यास ‘द्वैती पंथ’ म्हणतात. ‘देवता या नित्यबद्ध आहेत, जीव बद्धमुक्त आहेत, परमेश्वर नित्यमुक्त आहे व प्रपंच अनित्य आहे’ असे या तत्त्वज्ञानाचे सूत्र आहे.
●जीव : जीव बद्धमुक्त म्हणजे बद्ध असूनही मुक्तीस पात्र असणारा असा आहे. त्याला मायेचे बंधन आहे. तो मूलतः स्फटिकाप्रमाणे शुभ्र आहे पण अविद्येमुळे त्याला काळसरपणा प्राप्त झालेला आहे. तांदळाच्या दाण्यावर जसे पाच पदर असतात, तसा जीव हा ‘पाच पिशीं’नी युक्त असतो. अनादि, अविद्या, अन्यथाज्ञान, जीवत्व व आदिमळ या त्या पाच पिशी होत. यासाठी उद्धवगीतेत मडक्याच्या उतरंडीचा समर्पक दृष्टांत दिला आहे. यांतील सर्वांत तळाचे मडके अविद्या हे आहे. हे अविद्येनेच मडके फोडले म्हणजे वरची मडकी आपोआपच फुटतील.
●प्रपंच : प्रपंचास महानुभाव अनित्य मानतात. कारणप्रपंच व कार्यप्रपंच असे त्यांनी प्रपंचाचे दोन भाग केले आहेत. अव्यक्त असणारी पंचमहाभूते व त्रिगुणी म्हणजेच कारणप्रपंच होय. कार्यप्रपंचाची निर्मिती पृथ्वी, आप, तेज, वायू, आकाश ही पंचमहाभूते व सत्त्व, रज, तम हे त्रिगुण यांच्यातून झाली आहे.
●देवता : देवतांना महानुभावांनी गौण मानले आहे. परमेश्वर हा नित्यमुक्त असल्यामुळेच तो जीवाचा उद्धार करू शकतो. (परमेश्वर एकु सोडविता) परमेश्वराचे ज्ञान झाले म्हणजे, अथवा भक्ती केली म्हणजे, जीवाला मोक्ष मिळतो. मोक्ष परमेश्वराकडूनच मिळू शकतो. देवतांकडून नाही. देवतांचे कार्य सृष्टीतील जिवांना त्यांच्या कर्मांची सुखदुःखात्मक फळे देणे हे होय.
वेदान्तातील कल्पनेच्या उलट महानुभावीय ईश्वरास प्रमुख स्थान देतात आणि ब्रह्मास एक भाग मानतात. त्यांच्या मते, ईश्वर हा अनादि, नित्य, अव्यक्त, स्वयंप्रकाशी, सर्वव्यापी, ज्ञानमय, आनंदमय, सर्वसाक्षी व सर्वकर्ता असा आहे. जीवाच्या उद्धारासाठी परमेश्वर मनुष्यदेह धारण करून अवतार घेतो. ईश्वराचे स्वरूप ज्ञानामुळे ओळखता येते. शब्दज्ञान, सामान्यज्ञान, अपरोक्षज्ञान व विशेषज्ञान असे या ज्ञानाचे चार प्रकार आहेत. ज्ञानमार्ग आणि भक्तिमार्ग ही मोक्षप्राप्तीची दोन साधने आहेत.
महानुभाव चार युगांचे चार अवतार मानतात. कृतयुगात हंसावतार, त्रेतायुगात दत्तावतार, द्वापारयुगात कृष्णावतार आणि कलियुगात चक्रधरावतार असे हे अवतार होत. महानुभावांनी फक्त पाचच मूर्ती मानून त्यांची पूजा केली आहे. हे पाच अवतार हेच त्यांचे पंचकृष्ण होत. गुरूवर प्रीती करावी पण त्याला परमेश्वर समजू नये असे महानुभाव मानतात. हा पंथ वेदांबद्दल आदर बाळगणारा असला तरी वेदांना प्रमाण मानणारा नाही. महानुभाव पंचकृष्णांच्या वचनांनाच प्रमाण मानतात.
◆महानुभाव पंथाचे तत्त्वज्ञान
व्यक्तीचे श्रेष्ठत्व जन्माने नव्हे, तर त्याच्यातील तत्त्वज्ञानातून ठरते, असे सांगणारा महानुभाव हा एकच पंथ असून, येथे सर्व माणसे समान आहेत, असे काही विद्वान मानतात. त्यांच्या मते दंभ निर्माण होतात तेव्हा धर्मात अपप्रवृत्ती येतात. प्रत्यक्ष असणे व दिसणे यातील भेद संपतो, तेव्हा दंभ संपतो. त्याचवेळी समाजात परिवर्तन घडू शकते. महानुभाव पंथ हा सर्वाना सामावून घेणारा पंथ आहे. येथे सर्व समान आहेत. त्यामुळे सर्व जाती-धर्माचे लोक येथे दिसतात. येथे जातिभेद नाही, तर केवळ तत्त्वज्ञान आहे. धर्मासाठी आम्ही नाही, तर धर्म आमच्यासाठी आहे. तो साध्य नाही, तर साधन आहे. हीच पंथाची शिकवण आहे. इ.स. १२व्या शतकात मानवतेला लागलेला भेदाभेदांचा कलंक दूर करण्याचा प्रयत्न चक्रधर स्वामींनी महानुभाव पंथाच्या माध्यमातून केला.महानुभाव समप्रदाय हा अहिसा वदि आसुन अहिसा परम धर्म हे त्याचे एक महत्वाचे तत्व आहे
◆चक्रधर स्वामी सामाजिक समतेचे आद्यप्रवर्तक
बाराव्या शतकात महानुभाव पंथाचे प्रवर्तक श्री चक्रधर स्वामी यांनी केलेल्या सामाजिक परिवर्तनाने धर्मशास्त्र व साहित्याची दारे समाजातील उपेक्षितांसाठी खुली झाली. त्यामुळे श्री चक्रधर स्वामींकडेच सामाजिक समतेच्या आद्यप्रवर्तकाचा पहिला मान जातो. त्या काळानंतर हातामध्ये समाजाची सूत्रे असणाऱ्यांनी चक्रधरांच्या विचार व स्वार्थाआड येऊ पाहणाऱ्या सर्वसमावेशक विचारांना सर्वसामान्यांपासून हेतुपुरस्सर दूर ठेवले, असा आरोप होतो. चक्रधर स्वामींचे समतेचे तत्त्वज्ञानही उपेक्षित ठेवले गेले. हा त्रास जो चक्रधर स्वामींच्या आधुनिक विचारांना झाला, तोच महात्मा फुले, सावित्रीबाई, रयतेचा राजा श्री शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर या प्रवाहाविरुद्ध पोहणाऱ्या महापुरुषांनाही झाला. तीच प्रथा आजही सामाजिक व साहित्यिक क्षेत्रात दिसून येत आहे, असे काहींचे मत आहे. चक्रधरांची धर्मक्रांती ही सनातन्यांच्या डोळ्यांत एक झणझणीत अंजन होते, असे म्हटले जाते.
पहा: महानुभाव साहित्य संमेलन
आचार्य भानुकवी जामोदेकर साहित्य संघाचे पहले आद्य कवयित्री महदंबा साहित्य संमेलन जालना जिल्ह्यातील दहीपुरी येथे भरले होते. या संमेलनाचे अध्यक्ष महंत बाभुळगावकरशास्त्री होते
●प्रमुख महानुभावी व्यक्ती
केशिराज बास
नागदेवाचार्य
गोविंद प्रभू अर्थात गुंडम राऊळ
नागराजबाबा
भास्करबाबा जामोदेकर (भानुकवी)
बाभूळगांवकरबाबा शास्त्री
परसरामबास : परसरमबास हे महानुभावीय साहित्याचे अभ्यासक होते. त्यांनी लीळाचरित्राची प्रत हरवल्यावर त्याची पामाणित प्रत तयार करण्याचे काम केले.पंथातील शाखांची निर्मिती करून त्यांच्या आचार्यांना महंतपद देऊन परसरामबास यांनी पंथात एकोपा टिकवला. परसरामबास यांच्या कार्याची ओळख डॉ. भू.मा ठाकरे यांनी ’महानुभावी संशोधनाचार्य परसरामबास वाङ्मय आणि तत्त्वज्ञान’ या पुस्तकात करून दिली आहे.
या प्रश्नाचे उत्तर अद्याप लिहिलेले नाही
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मुकुंदराजांनंतर आणि ज्ञानेश्वरांच्या काही काळ अगोदर महानुभाव संप्रदाय महाराष्ट्रात उदयास आला. ‘महान अनुभवोस्तेजा बलं वा यस्य सः महानुभावः’ या दृष्टीने मोठा तेजाने युक्त असलेल्या लोकांचा मार्ग, तो महानुभाव पंथ, असे म्हटले जाते.वि.भि. कोलते यांच्या मते (पहा : लोकशिक्षण, वर्ष ७, अंक ४/५) या संप्रदायाचे मूळचे नाव ‘परमार्ग’ असे असून महानुभाव पंथ हे नाव प्रथम एकनाथांनीवापरले असल्याचे शं. गो. तुळपुळे म्हणतात. महानुभाव पंथाचे मूळ पुरुष गोविंदप्रभू ऊर्फ गुंडम राऊळ हे होते परंतु या पंथाचे प्रणेते मात्र चक्रधरआहेत. चक्रधरांचा कालखंड (इ. स. ११९४ ते १२८२) हा महाराष्ट्रातील ऐश्वर्याचा आणि समृद्धीचा कालखंड समजला जातो. देवगिरीच्या यादवांची कारकीर्द या वेळी महाराष्ट्रात होती.
समाजात चातुर्वर्ण्याची मिरासदारी वाढलेली असण्याच्या काळात चक्रधरांनी शंकराचार्य (अद्वैत) व रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत) यांच्या तत्त्वज्ञानाचा मिलाफ करून (ज्ञान आणि भक्ती यांचा समन्वय करून) आपल्या द्वैती तत्त्वज्ञानाचा प्रसार केला आणि सामान्य देवतांचे प्रस्थ कमी केले. देवतांच्या पूजेचा निषेध केला आणि चातुर्वर्ण्यावर हल्ला चढविला. आपल्या पंथात त्यांनी स्त्रिया, शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय अशा सर्वांनाच संन्यास घेण्याची सोय ठेवली. संपूर्ण अहिंसा आणि कडकडीत वैराग्य यांचे पालन आपल्या संप्रदायात अपरिहार्य मानले. धर्माचे रहस्य आपल्या बोलीभाषेत सांगणाऱ्या जैन, लिंगायत, नाथ इत्यादी संप्रदायांप्रमाणो जनभाषेत आपले तत्त्वज्ञान सांगण्याचा प्रयत्न केला. चक्रधर (आणि पुढे) ज्ञानदेव यांनी केलेला लोकभाषेचा पुरस्कार हे या काळातील एक मोठे सांस्कृतिक कार्य होते.
ओळख
महानुभाव पंथ महाराष्ट्रात उगम पावलेला असला तरी त्याचा प्रसार उत्तर भारतात पंजाब आणि काश्मीरपर्यंत झाला. उत्तरेकडे या संप्रदायाला जयकृष्णी पंथ म्हटले जाते. आजही उत्तर भारतात या संप्रदायाचे आश्रम व महंत आहेत. या संप्रदायाच्या समाजावादी व चातुर्वर्ण्यविरोधी विचारसरणीमुळे मोठय़ा प्रमाणात अनुयायी लाभले. महानुभाव संप्रदायाचे तेरा आम्नाय आहेत. कवीश्वर आम्नाय हा त्यांतील एक होत. मुरारी बास हे याच आम्नायातले आहेत. तत्त्वाचिंतनात्मक लेखन हे त्यांचे एक वैशिष्ट्य आहे. ग्रंथावर भाष्य-महाभाष्य लिहिली गेली. भाष्यलेखनाची परंपरा व्यापक, प्रदीर्घ व भाष्य-लेखन सातत्य टिकविणारी आहे. महानुभाव संप्रदायाचे प्रवर्तक व अवतारस्वरुप श्रीचक्रधरस्वामी यांनी बाराव्या तेराव्या शतकात आपल्या संप्रदायाच्या तत्त्वज्ञानाची वैशिष्ट्ये सूत्ररुपाने 'दृष्टान्तपाठ' या ग्रंथात सांगितली. या ग्रंथावरील भाष्ये अनेक महानुभाव संतकवींनी व भाष्यकारांनी केली. हा इतिहासही महानुभाव साहित्याचे वेगळपण सिद्ध करणारा आहे. याच भाष्यलेखनमालिकेतील मुरारीबासांचा 'दृष्टान्तप्रबोध' हा ग्रंथ होय. या संप्रदायातील अनेक भाष्यकार संस्कृतज्ञ विद्वान आणि त्यांनी आपले भाष्यग्रंथ स्वामींच्या आदेशानुसार लोकभाषा मराठीतून लिहिले आहे.
यादव काळात, सुमारे १३ व्या शतकात महानुभाव हा अत्यंत लोकप्रिय पंथ होता. या पंथाची स्थापना करणाऱ्या चक्रधर स्वामींना लोक "पंचकृष्णां" पैकी एक अवतार मानीत असत. या पंथांची वैदिक धर्मावर श्रद्धा नसली तरी त्याबद्दल स्वामींना आस्था होती. एक सामाजिक गरज म्हणून चातुर्वर्ण्यावर महानुभावांचा विश्वास आहे. मात्र तत्त्व म्हणून ते जातिभेद, स्त्री-पुरुष भेद मानीत नाहीत. ते कृष्णभक्त आहेत आणि कृष्णाचे पाच अवतार झाले असे मानतात. ते भक्तिमार्गी असून काही नियम पाळतात. त्यातील प्रमुख चार नियम म्हणजे शणागती, प्रसाद सेवा, मूर्तिध्यान वा मूर्तिज्ञान आणि नामस्मरण हे होत. या पंथांवर जैन व बौद्ध धर्मांचा बराच प्रभाव पडलेला दिसून येतो. यतिधर्म (संन्यास) व गृहस्थधर्म या दोहोवर त्यांचा भर आहे. स्त्रियांना मठांत संन्यासिनी म्हणून जगण्याचा अधिकार आहे. मात्र विधवांना हा हक्क नाही. ते अहिंसा, शाकाहार, सात्विक जीवन, भिक्षा मागणे व देशभ्रमण या गोष्टी काटेकोरपणे पाळतात. त्यानी एक सांकेतिक लिपी शोधून काढली. ती नऊ तऱ्हांनी लिहिता येते. मराठी भाषेवर महानुभावांचे फार मोठे उपकार आहेत; तसेच त्यांनी भारतीय तत्त्वज्ञानात मोलाची भर घातली आहे. त्यांचे सूत्रपाठ, सतिग्रंथ, आख्यान काव्य, साधना ग्रंथ, टीकाग्रंथ आणि भाष्यग्रंथ अत्यंत मोलाचे आहेत. सोळाव्या शतकात महानुभाव पंथाचा प्रसार पंजाबमध्ये झाला. कृष्णराज नावाच्या पंजाबी व्यापाऱ्याने हा धर्मग्रंथ तिकडे नेला. ते पुढे कृष्णमुनी म्हणून प्रसिद्धीस आले. त्यांचा हा संप्रदाय जयकृष्ण पंथ म्हणून पंजाबमध्ये प्रसिद्ध आहे. मराठीत लिहिलेले सूत्रपाठ हिंदी अथवा पंजाबी मातृभाषा असलेले अनुयायी अद्यापही वाचतात. सतराव्या शतकात मोगल बादशहा औरंगजेब याने पंथाला जिझिया करापासून मुक्त केले. कारण त्याला ते हिन्दू फकीर वाटले. गेली साडेसातशे वर्षे हा पंथ महाराष्ट्रात, मध्य प्रदेशात व पंजाबमध्ये अस्तित्वात आहे. महानुभावांची कृष्णाची मंदिरे मुंबई, दिल्ली व अमृतसर या ठिकाणी आढळतात.
महानुभाव पंथ व साहित्य
यादवराजांच्या कारकीर्दीत, बाराव्या शतकात, महाराष्ट्रात महानुभाव पंथ उदयास आला. सामान्यांना त्यांच्या भाषेत मोक्षमार्ग सुलभ करून सांगणारे जैन, नाथ, लिंगायत, आदी पंथ यापूर्वीच प्रस्थापित झाले होते. या काळात कर्मकांडाचे प्रस्थ वाढून सकाम भक्तीचे बंड माजले होत. सर्वांसाठी खुल्या असणाऱ्या महानुभाव पंथाने जातिनिरपेक्षतेचा आणि अहिंसा तत्त्वाचा पुरस्कार केला.
‘महानुभाव’ या नावने हा पंथ जरी आज ओळखला जात असला, तरी त्याची ‘महात्मा’, ‘अच्युत’, ‘जयकृष्णी’, ‘भटमार्ग’, ‘परमार्ग’ अशी अन्य नावेही आहेत. गुजराततेत ‘अच्युत पंथ’ व पंजाबात ‘जयकृष्णी पंथ’ ही नावे लोकप्रिय आहेत. ही दोन्ही श्रीकृष्णभक्तीचा द्योतक आहेत. या पंथातील अनुयायी परस्परांस ‘महात्मा’ म्हणत. ‘भटमार्ग’ हे नाव पंथसंस्थापक चक्रघरांचा पट्टशिष्य नागदेव किंवा भटोबास याच्या नावावरून आलेले आहे.
चक्रधरोक्त सिद्धान्तसूत्रपाठाप्रमाणेच गीता हा या पंथाचा प्रमुख धर्मग्रंथ असून श्रीकृष्णलीलावर्णन करणारे भागवत ते प्रमाण मानतात. कृतयागात हंसावतार, त्रेतायुगात दत्तावतार, द्वापारयुगात श्रीकृष्ण आणि कलियुगात चक्रधर असे चार अवतार त्यांच्या मते असून त्यांचा दत्त हा एकमुखी होय. द्वारकाधीश कृष्ण, दत्तात्रय, द्वारावतीचे चांगदेव राऊळ, ऋद्धिपूरचे गोविंदप्रभू आणि प्रतिष्ठानचे चक्रधर असे कृष्णाचे पाच अवतार ते मानतात. त्यांपैकी दत्तात्रय, श्रीकृष्ण चक्रधर हे उभयदृश्य पूर्णावतार होत.
जीव, देवता, प्रपंच आणि परमेश्वर ही अनादि व अनंत मूळ चार तत्त्वे असून परमेश्वर नेहमी मनुष्यरूप धारण करून अवतार घेतो. मनुष्यरूपानेच प्राणिमात्रांचे उद्धरण परमेश्वरास करता येईल, अशी त्यांची श्रद्धा आहे. प्रपंच हा अनित्य असून अनादि अविद्यायुक्त जीव बद्धमुक्त, देवता नित्यबद्ध आणि परमेश्वर हा नित्यमुक्त आहे; जीव अनंत असून परमेश्वराचे अवतारही अनंत आहेत. जीवेश्वराचा संबंध हा स्वामिभृत्यासारखा आहे, असे ते मानतात. या दृष्टीने हा पंथ द्वेती असून आत्मा आणि परमात्मा वेगळे मानणारा आहे.
अविद्येपासून मुक्त होऊन ईश्वरस्वरूपाचा आनंद भोगण्याची पात्रता जीवाच्या ठिकाणी असल्याने महानुभवांनी जीवास ‘बद्धमुक्त’ मानले आहे. प्रपंचाचे स्वरूप अष्टभैरवस्थित पंचमहाभूते व त्रिगुण यांच्यापासून निर्माण झालेली सृष्टी असे असून त्याचे ‘कारण प्रपंच’ व ‘कार्य प्रपंच’ असे दोन भाग केले आहेत. ‘कारण प्रपंच’ हा अनादि अनंत म्हणूनच नित्य आहे. कार्यरूप प्रपंच हा व्यक्त आणि अनित्य होय. तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी म्हणतात, ‘प्रपंचु संहारे’ असे म्हटले असल्यामुळे प्रपंच अनित्य वर्गातला आहे, यात शंका राहत नाही. अविद्या अनादि मानली तरी ती नित्य असली पाहिजे, असे अनुमान करण्याचे कारण नाही. कारण–अविद्या व कार्य−अविद्या मोक्षस्थितीत संपूर्ण नाश पावतात, असे गौतम बुद्ध वशंकराचार्य यांचे मत आहे, तेच चक्रधर स्वामींनी मान्य केले आहे (महाराष्ट्र जीवन, खंड १, पृष्ठ २१९).
देवतांचे नऊ थोवे महानुभावीयांनी कल्पिले असून त्यांची प्रत्येक ब्रह्मांडातील संख्या एक्क्याऐंशी कोटी सव्वा लक्ष दहा इतकी आहे, असे ते समजतात. त्या नित्यबद्ध, भावरूप पण अव्यक्त आणि ज्ञान, सुख, ऐश्वर्य, प्रकाश व सामर्थ्य यांनी युक्त असल्या, तरी परमेश्वरूप नव्हेत. देवतांचे मुख्य कार्य सृष्टीतील जीवांना त्यांच्या कर्मांची सुखदुःखात्मक फळे देणे हे आहे, अशी त्यांची धारणा असते. अद्वैत वेदान्तामध्ये ब्रह्मस्वरूप हे अंतिम सत्य व ईश्वर हे ब्रह्माचे सोपाधिक म्हणजे गौण स्वरूप मानले आहे.
महानुभाव तत्त्वज्ञानानुसार परमेश्वराचे (१) अवतरदृश्यावतार, (२) परदृश्यावतार, (३) उभयदृश्यावतार असे तीन प्रकारचे अवतार आहेत. परमेश्वर नित्यमुक्त असल्याने तोच जीवाचा उद्धार करू शकतो. त्या त्या युगातील देहधारी जीव साकार परमेश्वराच्या सन्निधानाने आपला उद्धार करून घेतात. मात्र जीवाचे उद्धरण म्हणजे अद्वैत्यांची मुक्ती नव्हे. मुक्तीनंतरही जीवाचे अस्तित्व टिकून राहते. ईश्वराकडून शब्दज्ञान झाले, तरी मोक्षमार्गाने जाण्यासाठी अनुसरणाच्या मार्गाचा अवलंब करून वयाच्या छप्पन्नाव्या वर्षापूर्वी सर्वेंद्रिये कार्यक्षम असताना संन्यास घेणे आवश्यक आहे. संन्यास घेऊन परमेश्वराला अनुसरल्यानंतर देहान्तापर्यंत साधकाला ‘असती−परी’ आचरावी लागते. महानुभावांचे उपदेशी आणि संन्यासी असे दोन वर्ग असून उपदेशी वर्ग लौकिक जीवनात चातुर्वर्ण्य पाळतो. संन्यासदीक्षेनंतर मात्र जातिनिर्बंध पाळण्याची आवश्यकता नाही.
महानुभाव पंथाचे प्रवर्तक चक्रधर हे होत. ऋद्धिपूरच्या गोविंदप्रभू या परमेश्वरावताराचे ते शिष्य. त्यांचे मूळचे नाव हरपाळदेव असून त्यांच्या मृत शरीरात चांगदेव राऊळ यांनी प्रवेश करून नवीन अवतार धारण केला अशी कल्पना आहे. नागदेवाचार्य हे चक्रधरांचे पट्टशिष्य व पंथाचे पहिले आचार्य. चक्रधरांच्या वैदिक धर्माहून आणि लोकरुढीहून वेगळ्या शिकवणीमुळे तत्कालीन सनातनी लब्धप्रतिष्ठितांकडून त्यांना विरोध झाला व त्यांना नाहीसे करण्याचे प्रयत्न झाले.
महानुभावांच्या मराठीविषयक आत्मीयतेच्या भावनेमुळे या पंथातील व्यक्तींनी विविध वाङ्मयप्रकारांत रचना करून मराठी साहित्य समृद्ध केला आहे. स्मृति-संकलनात्मक गद्य चरित्रवाङ्मय ही या पंथाची मराठी साहित्यास लाभलेली महत्त्वाची देणगी होय. महानुभाव वाङ्मयात चरित्रे, सूत्रवाङ्मय, टीकावाङ्मय, न्याय-व्याकरणादी शास्त्रे, क्षेत्र व व्यक्तिमहात्मवर्णने, स्तोत्रे इ. प्रकारचा समावेश आहे. निरनिराळ्या काळात पंथातील प्रतिभासंपन्न कवींनी लिहिलेल्या सात काव्यांना साती ग्रंथ म्हटले जाते. यात नरेंद्रांचे रुक्मणीस्वयंवर; भास्करभट्ट बोरीकरांचे शिशुपालवध व उद्धवगीता. दामोदर पंडितांचा वछाहरण, रवळो व्यासकृत सैह्याद्रिवर्णन, पंडित विश्वनाथ बाळापूरकर यांचा ज्ञानप्रबोध आणि पंडित नारायण व्यास वहाळिये यांचे ऋद्धिपूरवर्णन यांचा समावेश होतो. हे साती ग्रंथ परमार्गाच्या परंपरेने मान्य केलेले आहेत. श्रीचक्रधर व श्रीगोविंदप्रभू या ईश्वरावतारांच्या लीळा त्यांच्या भक्तांकडून मिळवून म्हाइंभट्टांनी चक्रधरांच्या जीवनावरील लीळाचरित्र आणि गोविंदप्रभूंच्या जीवनावरील ऋद्धिपूरचरित्र हे चरित्रग्रंथ तयार केले आणि पंथीयांच्या नित्यस्मरणाची मोठी सोय केली. केसोबासांनी लीळाचरित्रातील काही लीळा निवडून त्या संस्कृत भाषेत पद्यबद्ध केल्या व आपला रत्नमालास्तोत्र ग्रंथ निर्माण केला. नागदेवांच्या जीवनावरील स्मृतिस्थळ हा चरित्रग्रंथ प्रथम नरेंद्र व परशराम बासांनी तयार केला, असे म्हणतात. पुढे त्याचे मालोबास व गुर्जर शिववास यांनी संस्करण केले. केशवराज सूरी यांनी सिद्धान्तसूत्रपाठ आणि दृष्टान्तपाठ हे पंथीय तत्त्वज्ञान विशद करणारे ग्रंथ तयारे केले. श्रीचक्रधरांनी नित्यदिनचर्या सांगणारा छोटा पण महत्त्वाचा ग्रंथ पूजावसर हा वाङ्देववास यांचा. मुनिव्यासांनी श्रीचक्रपाणी, गोविंदप्रभू व चक्रधर यांच्या ‘संबंधा’ने पवित्र झालेल्या स्थळांची स्थानपोथी लिहिली. डॉ. कोलते ह्यांच्या मते ते कर्तृत्व शंकास्पद आहे. म्हाइंभट हे मराठीतील आद्य चरित्रकार मानले जातात. धवळे व मातृकी रुक्मिणीस्वयंवर रचणारी चक्रधरशिष्या महदाइसा ही आद्य मराठी कवियत्री होय. हयग्रीवाचार्य यानी भागवताच्या दशम स्कंधावर गद्यराज हे निर्यमक श्लोकबद्ध काव्य लिहिले. पंथाच्या उत्कर्षकाळात निर्माण झालेल्या महत्त्वाच्या ग्रंथरचनेनंतर भाष्यग्रंथ व इतर प्रकारचे साहित्य लिहिले गेले. त्यात गुर्जर शिववासाने, चक्रधरांच्या वचनांवर संबंधिलेले लक्षणस्थळ, विचारस्थळ व आचारस्थळ हे ग्रंथ महत्त्वाचे होत. यांतील प्रत्येक स्थळावर पुढे अनेक भाष्ये किंवा बंद लिहिले गेले. त्यांत दत्तराज मराठे यांचा लक्षणबंद, वाईंदेशकरांचा विचारबंद विश्वनाथवास बीडकर यांचा आचारबंद विशेष महत्त्वाचे आहेत. स्थळ व बंद ग्रंथांनी चौदाव्या-पंधराव्या शतकांत मराठी गद्याचे दालन विशेष समृद्ध झाले आहे. याच काळात मराठीचा पहिला व्याकरणग्रंथ पंडित भीष्माचार्यानी लिहिला. चक्रधरांची वचने ज्या प्रसंगी निरूपिली गेली वर्णन करणारा, निरुक्तशेष ग्रंथ भीष्माचार्य वाइंदेशकर ह्यांनी तयार केला. तोही पंथीय वाङ्मयात महत्त्वाचा मानला जातो.
महानुभाव पंथाचे संस्थापक चक्रधर हे स्वतः गुजराती भाषक असले, तरी ते मराठी भाषा अस्खलित बोलत. आपल्या तत्त्वज्ञानाचा मराठी या लोकभाषेत त्यांनी प्रचार केला. त्यांचा हा दृष्टिकोण पंथाचे आचार्य नागदेव यांनी कटाक्षाने आचरणात आणला. त्यामुळे केशिराजांसारख्या संस्कृतज्ञ शिष्यांकडून त्यांनी माठी भाषेत ग्रंथरचना करवून घेतली (नको गा केशवदेया : येणें, माझिया स्वामीचा सामान्य परिवारू नागवैस की : किंवा ‘तुमचा अस्मात् मी नेणे गा : मज श्रीचक्रधरे निरुपल्ली मऱ्हाटी : तियाचि पुसा :) (स्मृ. स्थ. १५, ६६). चक्रधर-नागदेवांच्या शिष्यवर्गात पारंपारिक संस्कृत पठडीत तयार झालेले शिष्य असल्याने त्यांची ग्रंथरचना संस्कृत वाङ्मयाच्या वळणावर गेली असून त्यांच्या भाषेवर संस्कृताचा मोठा प्रभाव आहे. या ग्रंथात प्रारंभी महाकाव्यसदृश सलग ग्रंथरचना झाली. पुढील काळात चौपद्या, धुवे, स्तोत्रे, आरत्या, धवळे, पदे अशी विपुल स्फुटरचनाही झाली. लक्ष्मण रत्नाकरासारख्या संस्कृत ग्रंथावरील बत्तीस लक्ष्मणांची टीप यासारखे टीपग्रंथ लिहिले गेले. त्यामुळे सूत्रभाष्य, अर्थनिर्णयशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, साहित्यशास्त्र यांची रचना मराठीच्या प्रारंभाकाळात करून महानुभावीयांनी मराठीची उपासनाच नव्हे, तर गोपासनाही केली. महानुभावीयांच्या या वैविध्यपूर्ण वाङ्मयाची विभागणी (१) चरित्रग्रंथ, (२) सूत्रग्रंथ, (३) साती (काव्य) ग्रंथ, (४) भाष्यग्रंथ, (५) साधनग्रंथ, (६) तात्त्विक ग्रंथ, (७) गीता टीका, (८) आख्यानक काव्ये, (९) स्थलवर्णनपर ग्रंथ, (१०) इतिहासग्रंथ, (११) स्फुटरचना अशा प्रकारांत करता येईल.
भासकरभट हे पंथाचे आचार्य असताना, मुसलमानी आक्रमणाच्या काळात ते कोकणात जात असताना, लीळाचरित्र, ऋद्धिपूरचरित्र, स्थानपोथी इ. ग्रंथांच्या अधिकृत पोथ्या चोरांकडून लुबाडल्या गेल्या. त्यानंतर हिराइसा आदी अनेक शिष्यांकडून आपापल्या आठवणीप्रमाणे त्यांचे पुनर्लेखन करण्यात आले. ते करताना त्यांनी इतरांच्या ‘वासना’ ही नमूद केल्या. त्यामुळे या ग्रंथांत अनेक पाठभेद निर्माण झाले आणि पुढेपुढे त्यांत अधिकाधिक भर पडत गेली. काही आग्नायांनी सांकेतिक लिपीत आपले ग्रंथ निबद्ध केले. आपली ब्रह्मविद्या, धर्ममते भ्रष्ट होऊ नयेत म्हणून इतरांपासून गुप्त ठेवण्याची आणि पंथीय वाङ्मयाचे पावित्र्य राखण्याची भावना वाढीस लागून त्यासाठी ग्रंथ सांकेतिक लिपीत लिहिण्यास येऊ लागले. रवळो व्यासाने १३५३ मध्ये सकळ लिपी तयार केली आणि १३६३ मध्ये सुंदरी लिपी निघाली. त्यानंतर पारमांडल्य, वज्रलिपी, अंकलिपी इ. अनेक लिप्या तयार झाल्या असल्या, तरी बहुतेक ग्रंथ सकळ लिपीतच आढळतात. परशुराम आचार्यांच्या काळात निर्माण झालेल्या अनुयायांची नावे अशी : (१) कवीश्वर, (२) उपाध्ये, (३) पारिमांडल्य, (४) अमृते, (५) मदळसा, (६) कुमर, (७) यक्षदेव, (८) दामोदर, (९) हरिदेव, (१०) जयदेव, (११) साळकर, (१२) दिवाकर आणि (१३) महेश्वर. महानुभाव पंथाने प्रस्थापित आचारधर्मावर प्रहार करून एक नवा विचारप्रवाह निर्माण केला. चक्रधरांनी गीतेवरील भाष्याच्या स्वरूपात पारंपरिक पद्धतीने आपले विचार न मांडता स्वतंत्रपणे मांडले. श्रीकृष्ण हा पूर्णावतार मानून त्यांनी पंचकृष्णांखेरीज अन्य देवता क्षुद्र मानल्या. स्त्रीशूद्रादिकांना संन्यासाचा अधिकार देऊन मोक्षमार्ग सर्वासाठी त्यांनी खुला केला. पंथीय तत्त्वविचार लोकभाषेत, मराठीत मांडले मराठी वाङ्मय समृद्ध झाले; परंतु सामान्यांच्या बौद्धिक पातळीचा विचार न करता या पंथातील संस्कृतज्ञ ग्रंथकारांनी लेखन केल्यामुळे त्याच्या प्रसारास मर्यादा पडल्या. महानुभव पंथाच्या वैदिक वा अवैदिक स्वरूपाबाबत वाद आहे. तो वेदानुयायी किंवा वेदविरोधी दोन्ही नसून त्याचे स्वतंत्र रूप आहे. असेही काही मानतात. त्यांचे वेदविरोधकत्व सांगताना (१) वेद हे कर्मरहाटीचे शास्त्र म्हणून त्याज्य आहे, हे चक्रधरांचे मत, (२) देवतांची उपसना परमेश्वरप्राप्तीच्या दृष्टीने अप्रमाण, (३) चक्रधर वचने हीच महानुभवांची श्रुती असून वेदवचने ते प्रमाण मानीत नाहीत करणारा म्हणून
महानुभाव ह्या प्रमुख संप्रदायामध्ये महानुभाव, वारकरी व रामदासी हे तीन वैष्णव पंथ आहेत.
अवतार
श्रीकृष्ण, दत्तात्रेय, चक्रपाणी, गोविंदप्रभू,चक्रधरस्वामी
समाजात चातुर्वर्ण्याची मिरासदारी वाढलेली असण्याच्या काळात चक्रधरांनी शंकराचार्य (अद्वैत) व रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत) यांच्या तत्त्वज्ञानाचा मिलाफ करून (ज्ञान आणि भक्ती यांचा समन्वय करून) आपल्या द्वैती तत्त्वज्ञानाचा प्रसार केला आणि सामान्य देवतांचे प्रस्थ कमी केले. देवतांच्या पूजेचा निषेध केला आणि चातुर्वर्ण्यावर हल्ला चढविला. आपल्या पंथात त्यांनी स्त्रिया, शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय अशा सर्वांनाच संन्यास घेण्याची सोय ठेवली. संपूर्ण अहिंसा आणि कडकडीत वैराग्य यांचे पालन आपल्या संप्रदायात अपरिहार्य मानले. धर्माचे रहस्य आपल्या बोलीभाषेत सांगणाऱ्या जैन, लिंगायत, नाथ इत्यादी संप्रदायांप्रमाणो जनभाषेत आपले तत्त्वज्ञान सांगण्याचा प्रयत्न केला. चक्रधर (आणि पुढे) ज्ञानदेव यांनी केलेला लोकभाषेचा पुरस्कार हे या काळातील एक मोठे सांस्कृतिक कार्य होते.
ओळख
महानुभाव पंथ महाराष्ट्रात उगम पावलेला असला तरी त्याचा प्रसार उत्तर भारतात पंजाब आणि काश्मीरपर्यंत झाला. उत्तरेकडे या संप्रदायाला जयकृष्णी पंथ म्हटले जाते. आजही उत्तर भारतात या संप्रदायाचे आश्रम व महंत आहेत. या संप्रदायाच्या समाजावादी व चातुर्वर्ण्यविरोधी विचारसरणीमुळे मोठय़ा प्रमाणात अनुयायी लाभले. महानुभाव संप्रदायाचे तेरा आम्नाय आहेत. कवीश्वर आम्नाय हा त्यांतील एक होत. मुरारी बास हे याच आम्नायातले आहेत. तत्त्वाचिंतनात्मक लेखन हे त्यांचे एक वैशिष्ट्य आहे. ग्रंथावर भाष्य-महाभाष्य लिहिली गेली. भाष्यलेखनाची परंपरा व्यापक, प्रदीर्घ व भाष्य-लेखन सातत्य टिकविणारी आहे. महानुभाव संप्रदायाचे प्रवर्तक व अवतारस्वरुप श्रीचक्रधरस्वामी यांनी बाराव्या तेराव्या शतकात आपल्या संप्रदायाच्या तत्त्वज्ञानाची वैशिष्ट्ये सूत्ररुपाने 'दृष्टान्तपाठ' या ग्रंथात सांगितली. या ग्रंथावरील भाष्ये अनेक महानुभाव संतकवींनी व भाष्यकारांनी केली. हा इतिहासही महानुभाव साहित्याचे वेगळपण सिद्ध करणारा आहे. याच भाष्यलेखनमालिकेतील मुरारीबासांचा 'दृष्टान्तप्रबोध' हा ग्रंथ होय. या संप्रदायातील अनेक भाष्यकार संस्कृतज्ञ विद्वान आणि त्यांनी आपले भाष्यग्रंथ स्वामींच्या आदेशानुसार लोकभाषा मराठीतून लिहिले आहे.
यादव काळात, सुमारे १३ व्या शतकात महानुभाव हा अत्यंत लोकप्रिय पंथ होता. या पंथाची स्थापना करणाऱ्या चक्रधर स्वामींना लोक "पंचकृष्णां" पैकी एक अवतार मानीत असत. या पंथांची वैदिक धर्मावर श्रद्धा नसली तरी त्याबद्दल स्वामींना आस्था होती. एक सामाजिक गरज म्हणून चातुर्वर्ण्यावर महानुभावांचा विश्वास आहे. मात्र तत्त्व म्हणून ते जातिभेद, स्त्री-पुरुष भेद मानीत नाहीत. ते कृष्णभक्त आहेत आणि कृष्णाचे पाच अवतार झाले असे मानतात. ते भक्तिमार्गी असून काही नियम पाळतात. त्यातील प्रमुख चार नियम म्हणजे शणागती, प्रसाद सेवा, मूर्तिध्यान वा मूर्तिज्ञान आणि नामस्मरण हे होत. या पंथांवर जैन व बौद्ध धर्मांचा बराच प्रभाव पडलेला दिसून येतो. यतिधर्म (संन्यास) व गृहस्थधर्म या दोहोवर त्यांचा भर आहे. स्त्रियांना मठांत संन्यासिनी म्हणून जगण्याचा अधिकार आहे. मात्र विधवांना हा हक्क नाही. ते अहिंसा, शाकाहार, सात्विक जीवन, भिक्षा मागणे व देशभ्रमण या गोष्टी काटेकोरपणे पाळतात. त्यानी एक सांकेतिक लिपी शोधून काढली. ती नऊ तऱ्हांनी लिहिता येते. मराठी भाषेवर महानुभावांचे फार मोठे उपकार आहेत; तसेच त्यांनी भारतीय तत्त्वज्ञानात मोलाची भर घातली आहे. त्यांचे सूत्रपाठ, सतिग्रंथ, आख्यान काव्य, साधना ग्रंथ, टीकाग्रंथ आणि भाष्यग्रंथ अत्यंत मोलाचे आहेत. सोळाव्या शतकात महानुभाव पंथाचा प्रसार पंजाबमध्ये झाला. कृष्णराज नावाच्या पंजाबी व्यापाऱ्याने हा धर्मग्रंथ तिकडे नेला. ते पुढे कृष्णमुनी म्हणून प्रसिद्धीस आले. त्यांचा हा संप्रदाय जयकृष्ण पंथ म्हणून पंजाबमध्ये प्रसिद्ध आहे. मराठीत लिहिलेले सूत्रपाठ हिंदी अथवा पंजाबी मातृभाषा असलेले अनुयायी अद्यापही वाचतात. सतराव्या शतकात मोगल बादशहा औरंगजेब याने पंथाला जिझिया करापासून मुक्त केले. कारण त्याला ते हिन्दू फकीर वाटले. गेली साडेसातशे वर्षे हा पंथ महाराष्ट्रात, मध्य प्रदेशात व पंजाबमध्ये अस्तित्वात आहे. महानुभावांची कृष्णाची मंदिरे मुंबई, दिल्ली व अमृतसर या ठिकाणी आढळतात.
महानुभाव पंथ व साहित्य
यादवराजांच्या कारकीर्दीत, बाराव्या शतकात, महाराष्ट्रात महानुभाव पंथ उदयास आला. सामान्यांना त्यांच्या भाषेत मोक्षमार्ग सुलभ करून सांगणारे जैन, नाथ, लिंगायत, आदी पंथ यापूर्वीच प्रस्थापित झाले होते. या काळात कर्मकांडाचे प्रस्थ वाढून सकाम भक्तीचे बंड माजले होत. सर्वांसाठी खुल्या असणाऱ्या महानुभाव पंथाने जातिनिरपेक्षतेचा आणि अहिंसा तत्त्वाचा पुरस्कार केला.
‘महानुभाव’ या नावने हा पंथ जरी आज ओळखला जात असला, तरी त्याची ‘महात्मा’, ‘अच्युत’, ‘जयकृष्णी’, ‘भटमार्ग’, ‘परमार्ग’ अशी अन्य नावेही आहेत. गुजराततेत ‘अच्युत पंथ’ व पंजाबात ‘जयकृष्णी पंथ’ ही नावे लोकप्रिय आहेत. ही दोन्ही श्रीकृष्णभक्तीचा द्योतक आहेत. या पंथातील अनुयायी परस्परांस ‘महात्मा’ म्हणत. ‘भटमार्ग’ हे नाव पंथसंस्थापक चक्रघरांचा पट्टशिष्य नागदेव किंवा भटोबास याच्या नावावरून आलेले आहे.
चक्रधरोक्त सिद्धान्तसूत्रपाठाप्रमाणेच गीता हा या पंथाचा प्रमुख धर्मग्रंथ असून श्रीकृष्णलीलावर्णन करणारे भागवत ते प्रमाण मानतात. कृतयागात हंसावतार, त्रेतायुगात दत्तावतार, द्वापारयुगात श्रीकृष्ण आणि कलियुगात चक्रधर असे चार अवतार त्यांच्या मते असून त्यांचा दत्त हा एकमुखी होय. द्वारकाधीश कृष्ण, दत्तात्रय, द्वारावतीचे चांगदेव राऊळ, ऋद्धिपूरचे गोविंदप्रभू आणि प्रतिष्ठानचे चक्रधर असे कृष्णाचे पाच अवतार ते मानतात. त्यांपैकी दत्तात्रय, श्रीकृष्ण चक्रधर हे उभयदृश्य पूर्णावतार होत.
जीव, देवता, प्रपंच आणि परमेश्वर ही अनादि व अनंत मूळ चार तत्त्वे असून परमेश्वर नेहमी मनुष्यरूप धारण करून अवतार घेतो. मनुष्यरूपानेच प्राणिमात्रांचे उद्धरण परमेश्वरास करता येईल, अशी त्यांची श्रद्धा आहे. प्रपंच हा अनित्य असून अनादि अविद्यायुक्त जीव बद्धमुक्त, देवता नित्यबद्ध आणि परमेश्वर हा नित्यमुक्त आहे; जीव अनंत असून परमेश्वराचे अवतारही अनंत आहेत. जीवेश्वराचा संबंध हा स्वामिभृत्यासारखा आहे, असे ते मानतात. या दृष्टीने हा पंथ द्वेती असून आत्मा आणि परमात्मा वेगळे मानणारा आहे.
अविद्येपासून मुक्त होऊन ईश्वरस्वरूपाचा आनंद भोगण्याची पात्रता जीवाच्या ठिकाणी असल्याने महानुभवांनी जीवास ‘बद्धमुक्त’ मानले आहे. प्रपंचाचे स्वरूप अष्टभैरवस्थित पंचमहाभूते व त्रिगुण यांच्यापासून निर्माण झालेली सृष्टी असे असून त्याचे ‘कारण प्रपंच’ व ‘कार्य प्रपंच’ असे दोन भाग केले आहेत. ‘कारण प्रपंच’ हा अनादि अनंत म्हणूनच नित्य आहे. कार्यरूप प्रपंच हा व्यक्त आणि अनित्य होय. तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी म्हणतात, ‘प्रपंचु संहारे’ असे म्हटले असल्यामुळे प्रपंच अनित्य वर्गातला आहे, यात शंका राहत नाही. अविद्या अनादि मानली तरी ती नित्य असली पाहिजे, असे अनुमान करण्याचे कारण नाही. कारण–अविद्या व कार्य−अविद्या मोक्षस्थितीत संपूर्ण नाश पावतात, असे गौतम बुद्ध वशंकराचार्य यांचे मत आहे, तेच चक्रधर स्वामींनी मान्य केले आहे (महाराष्ट्र जीवन, खंड १, पृष्ठ २१९).
देवतांचे नऊ थोवे महानुभावीयांनी कल्पिले असून त्यांची प्रत्येक ब्रह्मांडातील संख्या एक्क्याऐंशी कोटी सव्वा लक्ष दहा इतकी आहे, असे ते समजतात. त्या नित्यबद्ध, भावरूप पण अव्यक्त आणि ज्ञान, सुख, ऐश्वर्य, प्रकाश व सामर्थ्य यांनी युक्त असल्या, तरी परमेश्वरूप नव्हेत. देवतांचे मुख्य कार्य सृष्टीतील जीवांना त्यांच्या कर्मांची सुखदुःखात्मक फळे देणे हे आहे, अशी त्यांची धारणा असते. अद्वैत वेदान्तामध्ये ब्रह्मस्वरूप हे अंतिम सत्य व ईश्वर हे ब्रह्माचे सोपाधिक म्हणजे गौण स्वरूप मानले आहे.
महानुभाव तत्त्वज्ञानानुसार परमेश्वराचे (१) अवतरदृश्यावतार, (२) परदृश्यावतार, (३) उभयदृश्यावतार असे तीन प्रकारचे अवतार आहेत. परमेश्वर नित्यमुक्त असल्याने तोच जीवाचा उद्धार करू शकतो. त्या त्या युगातील देहधारी जीव साकार परमेश्वराच्या सन्निधानाने आपला उद्धार करून घेतात. मात्र जीवाचे उद्धरण म्हणजे अद्वैत्यांची मुक्ती नव्हे. मुक्तीनंतरही जीवाचे अस्तित्व टिकून राहते. ईश्वराकडून शब्दज्ञान झाले, तरी मोक्षमार्गाने जाण्यासाठी अनुसरणाच्या मार्गाचा अवलंब करून वयाच्या छप्पन्नाव्या वर्षापूर्वी सर्वेंद्रिये कार्यक्षम असताना संन्यास घेणे आवश्यक आहे. संन्यास घेऊन परमेश्वराला अनुसरल्यानंतर देहान्तापर्यंत साधकाला ‘असती−परी’ आचरावी लागते. महानुभावांचे उपदेशी आणि संन्यासी असे दोन वर्ग असून उपदेशी वर्ग लौकिक जीवनात चातुर्वर्ण्य पाळतो. संन्यासदीक्षेनंतर मात्र जातिनिर्बंध पाळण्याची आवश्यकता नाही.
महानुभाव पंथाचे प्रवर्तक चक्रधर हे होत. ऋद्धिपूरच्या गोविंदप्रभू या परमेश्वरावताराचे ते शिष्य. त्यांचे मूळचे नाव हरपाळदेव असून त्यांच्या मृत शरीरात चांगदेव राऊळ यांनी प्रवेश करून नवीन अवतार धारण केला अशी कल्पना आहे. नागदेवाचार्य हे चक्रधरांचे पट्टशिष्य व पंथाचे पहिले आचार्य. चक्रधरांच्या वैदिक धर्माहून आणि लोकरुढीहून वेगळ्या शिकवणीमुळे तत्कालीन सनातनी लब्धप्रतिष्ठितांकडून त्यांना विरोध झाला व त्यांना नाहीसे करण्याचे प्रयत्न झाले.
महानुभावांच्या मराठीविषयक आत्मीयतेच्या भावनेमुळे या पंथातील व्यक्तींनी विविध वाङ्मयप्रकारांत रचना करून मराठी साहित्य समृद्ध केला आहे. स्मृति-संकलनात्मक गद्य चरित्रवाङ्मय ही या पंथाची मराठी साहित्यास लाभलेली महत्त्वाची देणगी होय. महानुभाव वाङ्मयात चरित्रे, सूत्रवाङ्मय, टीकावाङ्मय, न्याय-व्याकरणादी शास्त्रे, क्षेत्र व व्यक्तिमहात्मवर्णने, स्तोत्रे इ. प्रकारचा समावेश आहे. निरनिराळ्या काळात पंथातील प्रतिभासंपन्न कवींनी लिहिलेल्या सात काव्यांना साती ग्रंथ म्हटले जाते. यात नरेंद्रांचे रुक्मणीस्वयंवर; भास्करभट्ट बोरीकरांचे शिशुपालवध व उद्धवगीता. दामोदर पंडितांचा वछाहरण, रवळो व्यासकृत सैह्याद्रिवर्णन, पंडित विश्वनाथ बाळापूरकर यांचा ज्ञानप्रबोध आणि पंडित नारायण व्यास वहाळिये यांचे ऋद्धिपूरवर्णन यांचा समावेश होतो. हे साती ग्रंथ परमार्गाच्या परंपरेने मान्य केलेले आहेत. श्रीचक्रधर व श्रीगोविंदप्रभू या ईश्वरावतारांच्या लीळा त्यांच्या भक्तांकडून मिळवून म्हाइंभट्टांनी चक्रधरांच्या जीवनावरील लीळाचरित्र आणि गोविंदप्रभूंच्या जीवनावरील ऋद्धिपूरचरित्र हे चरित्रग्रंथ तयार केले आणि पंथीयांच्या नित्यस्मरणाची मोठी सोय केली. केसोबासांनी लीळाचरित्रातील काही लीळा निवडून त्या संस्कृत भाषेत पद्यबद्ध केल्या व आपला रत्नमालास्तोत्र ग्रंथ निर्माण केला. नागदेवांच्या जीवनावरील स्मृतिस्थळ हा चरित्रग्रंथ प्रथम नरेंद्र व परशराम बासांनी तयार केला, असे म्हणतात. पुढे त्याचे मालोबास व गुर्जर शिववास यांनी संस्करण केले. केशवराज सूरी यांनी सिद्धान्तसूत्रपाठ आणि दृष्टान्तपाठ हे पंथीय तत्त्वज्ञान विशद करणारे ग्रंथ तयारे केले. श्रीचक्रधरांनी नित्यदिनचर्या सांगणारा छोटा पण महत्त्वाचा ग्रंथ पूजावसर हा वाङ्देववास यांचा. मुनिव्यासांनी श्रीचक्रपाणी, गोविंदप्रभू व चक्रधर यांच्या ‘संबंधा’ने पवित्र झालेल्या स्थळांची स्थानपोथी लिहिली. डॉ. कोलते ह्यांच्या मते ते कर्तृत्व शंकास्पद आहे. म्हाइंभट हे मराठीतील आद्य चरित्रकार मानले जातात. धवळे व मातृकी रुक्मिणीस्वयंवर रचणारी चक्रधरशिष्या महदाइसा ही आद्य मराठी कवियत्री होय. हयग्रीवाचार्य यानी भागवताच्या दशम स्कंधावर गद्यराज हे निर्यमक श्लोकबद्ध काव्य लिहिले. पंथाच्या उत्कर्षकाळात निर्माण झालेल्या महत्त्वाच्या ग्रंथरचनेनंतर भाष्यग्रंथ व इतर प्रकारचे साहित्य लिहिले गेले. त्यात गुर्जर शिववासाने, चक्रधरांच्या वचनांवर संबंधिलेले लक्षणस्थळ, विचारस्थळ व आचारस्थळ हे ग्रंथ महत्त्वाचे होत. यांतील प्रत्येक स्थळावर पुढे अनेक भाष्ये किंवा बंद लिहिले गेले. त्यांत दत्तराज मराठे यांचा लक्षणबंद, वाईंदेशकरांचा विचारबंद विश्वनाथवास बीडकर यांचा आचारबंद विशेष महत्त्वाचे आहेत. स्थळ व बंद ग्रंथांनी चौदाव्या-पंधराव्या शतकांत मराठी गद्याचे दालन विशेष समृद्ध झाले आहे. याच काळात मराठीचा पहिला व्याकरणग्रंथ पंडित भीष्माचार्यानी लिहिला. चक्रधरांची वचने ज्या प्रसंगी निरूपिली गेली वर्णन करणारा, निरुक्तशेष ग्रंथ भीष्माचार्य वाइंदेशकर ह्यांनी तयार केला. तोही पंथीय वाङ्मयात महत्त्वाचा मानला जातो.
महानुभाव पंथाचे संस्थापक चक्रधर हे स्वतः गुजराती भाषक असले, तरी ते मराठी भाषा अस्खलित बोलत. आपल्या तत्त्वज्ञानाचा मराठी या लोकभाषेत त्यांनी प्रचार केला. त्यांचा हा दृष्टिकोण पंथाचे आचार्य नागदेव यांनी कटाक्षाने आचरणात आणला. त्यामुळे केशिराजांसारख्या संस्कृतज्ञ शिष्यांकडून त्यांनी माठी भाषेत ग्रंथरचना करवून घेतली (नको गा केशवदेया : येणें, माझिया स्वामीचा सामान्य परिवारू नागवैस की : किंवा ‘तुमचा अस्मात् मी नेणे गा : मज श्रीचक्रधरे निरुपल्ली मऱ्हाटी : तियाचि पुसा :) (स्मृ. स्थ. १५, ६६). चक्रधर-नागदेवांच्या शिष्यवर्गात पारंपारिक संस्कृत पठडीत तयार झालेले शिष्य असल्याने त्यांची ग्रंथरचना संस्कृत वाङ्मयाच्या वळणावर गेली असून त्यांच्या भाषेवर संस्कृताचा मोठा प्रभाव आहे. या ग्रंथात प्रारंभी महाकाव्यसदृश सलग ग्रंथरचना झाली. पुढील काळात चौपद्या, धुवे, स्तोत्रे, आरत्या, धवळे, पदे अशी विपुल स्फुटरचनाही झाली. लक्ष्मण रत्नाकरासारख्या संस्कृत ग्रंथावरील बत्तीस लक्ष्मणांची टीप यासारखे टीपग्रंथ लिहिले गेले. त्यामुळे सूत्रभाष्य, अर्थनिर्णयशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, साहित्यशास्त्र यांची रचना मराठीच्या प्रारंभाकाळात करून महानुभावीयांनी मराठीची उपासनाच नव्हे, तर गोपासनाही केली. महानुभावीयांच्या या वैविध्यपूर्ण वाङ्मयाची विभागणी (१) चरित्रग्रंथ, (२) सूत्रग्रंथ, (३) साती (काव्य) ग्रंथ, (४) भाष्यग्रंथ, (५) साधनग्रंथ, (६) तात्त्विक ग्रंथ, (७) गीता टीका, (८) आख्यानक काव्ये, (९) स्थलवर्णनपर ग्रंथ, (१०) इतिहासग्रंथ, (११) स्फुटरचना अशा प्रकारांत करता येईल.
भासकरभट हे पंथाचे आचार्य असताना, मुसलमानी आक्रमणाच्या काळात ते कोकणात जात असताना, लीळाचरित्र, ऋद्धिपूरचरित्र, स्थानपोथी इ. ग्रंथांच्या अधिकृत पोथ्या चोरांकडून लुबाडल्या गेल्या. त्यानंतर हिराइसा आदी अनेक शिष्यांकडून आपापल्या आठवणीप्रमाणे त्यांचे पुनर्लेखन करण्यात आले. ते करताना त्यांनी इतरांच्या ‘वासना’ ही नमूद केल्या. त्यामुळे या ग्रंथांत अनेक पाठभेद निर्माण झाले आणि पुढेपुढे त्यांत अधिकाधिक भर पडत गेली. काही आग्नायांनी सांकेतिक लिपीत आपले ग्रंथ निबद्ध केले. आपली ब्रह्मविद्या, धर्ममते भ्रष्ट होऊ नयेत म्हणून इतरांपासून गुप्त ठेवण्याची आणि पंथीय वाङ्मयाचे पावित्र्य राखण्याची भावना वाढीस लागून त्यासाठी ग्रंथ सांकेतिक लिपीत लिहिण्यास येऊ लागले. रवळो व्यासाने १३५३ मध्ये सकळ लिपी तयार केली आणि १३६३ मध्ये सुंदरी लिपी निघाली. त्यानंतर पारमांडल्य, वज्रलिपी, अंकलिपी इ. अनेक लिप्या तयार झाल्या असल्या, तरी बहुतेक ग्रंथ सकळ लिपीतच आढळतात. परशुराम आचार्यांच्या काळात निर्माण झालेल्या अनुयायांची नावे अशी : (१) कवीश्वर, (२) उपाध्ये, (३) पारिमांडल्य, (४) अमृते, (५) मदळसा, (६) कुमर, (७) यक्षदेव, (८) दामोदर, (९) हरिदेव, (१०) जयदेव, (११) साळकर, (१२) दिवाकर आणि (१३) महेश्वर. महानुभाव पंथाने प्रस्थापित आचारधर्मावर प्रहार करून एक नवा विचारप्रवाह निर्माण केला. चक्रधरांनी गीतेवरील भाष्याच्या स्वरूपात पारंपरिक पद्धतीने आपले विचार न मांडता स्वतंत्रपणे मांडले. श्रीकृष्ण हा पूर्णावतार मानून त्यांनी पंचकृष्णांखेरीज अन्य देवता क्षुद्र मानल्या. स्त्रीशूद्रादिकांना संन्यासाचा अधिकार देऊन मोक्षमार्ग सर्वासाठी त्यांनी खुला केला. पंथीय तत्त्वविचार लोकभाषेत, मराठीत मांडले मराठी वाङ्मय समृद्ध झाले; परंतु सामान्यांच्या बौद्धिक पातळीचा विचार न करता या पंथातील संस्कृतज्ञ ग्रंथकारांनी लेखन केल्यामुळे त्याच्या प्रसारास मर्यादा पडल्या. महानुभव पंथाच्या वैदिक वा अवैदिक स्वरूपाबाबत वाद आहे. तो वेदानुयायी किंवा वेदविरोधी दोन्ही नसून त्याचे स्वतंत्र रूप आहे. असेही काही मानतात. त्यांचे वेदविरोधकत्व सांगताना (१) वेद हे कर्मरहाटीचे शास्त्र म्हणून त्याज्य आहे, हे चक्रधरांचे मत, (२) देवतांची उपसना परमेश्वरप्राप्तीच्या दृष्टीने अप्रमाण, (३) चक्रधर वचने हीच महानुभवांची श्रुती असून वेदवचने ते प्रमाण मानीत नाहीत करणारा म्हणून
महानुभाव ह्या प्रमुख संप्रदायामध्ये महानुभाव, वारकरी व रामदासी हे तीन वैष्णव पंथ आहेत.
अवतार
श्रीकृष्ण, दत्तात्रेय, चक्रपाणी, गोविंदप्रभू,चक्रधरस्वामी